Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
सहितपना प्रकृतिका धर्म है । कूटस्थ नित्य आत्मा तो सदासे ही मिथ्याश्रद्धान और मिथ्याज्ञानोंसे रहित है। यदि प्रकृतिके संसर्गसे आनुषक्लिक मिथ्यादर्शनज्ञानसहितपना आत्मामें कुछ कुछ आभी जाता था अब तो प्रकृतिकी सर्वज्ञता होनेपर वह भी आनुषङ्गिक मिध्यादर्शनसहितपना . आत्मामें नहीं आसकता है । अतः संपज्ञात-योगकालमै ही पुरुषका मिथ्यादर्शन आदिसे रहितपना स्वरूप पन गया है तो उसी समय आत्माकी परम मोक्ष हो जानी चाहिये थी।
सदा वैराग्यतत्त्वज्ञानाभिनिवेशात्मकप्रधानसंसर्गसद्भावानासंग्रज्ञातयोगोऽस्ति, यतः परममुक्तिरिति चेचहि रत्नत्रयाजीवन्मुक्तिरित्यायातः प्रतिक्षाव्यापाता।। . .. यहां कापिल कहते हैं कि सम्पूर्ण पदार्थोंको अच्छी तरह जाननेवाले जीवके उस संप्रज्ञात समाधिके समयमें वैराग्य, तत्त्वज्ञान और तत्त्वश्रद्धान स्वरूप प्रकृतिका संसर्ग आत्माके साथं विद्यमान हो रहा है । इस कारण उस समय निर्धाज समाधिरूप प्रकृतिका उपयोगरहित अभिन्न ज्ञान, श्रद्धान, चारित्रस्वरूप असंप्रज्ञात योग नहीं है। जिससे कि परममोक्ष प्राप्त हो जावे. अर्थात असंप्रज्ञातयोग परम मुक्तिका कारण है। राज्य, तत्वज्ञान, और तत्त्वश्रद्धानरूप प्रकृतिका संसर्ग जब तक है तब तक जीवन्मुक्ति है, परममुक्ति नहीं । आचार्य कहते हैं कि यदि आप ऐसा कहोगे सत्र तो आपके कहनेसे ही सिद्ध होता है कि रत्नत्रयसे ही जीवन्मुक्तिकी प्राप्ति होती है। यों तो अकेले तत्त्वज्ञानसे ही मोक्ष प्राप्त होजानेकी आपकी प्रतिज्ञाका व्याघात आगया । तीनोंसे मोक्षकी प्राप्ति होना यह जैन सिद्धांत है ।
परमतप्रवेशात् तच्चार्थश्रद्धानतत्त्वज्ञानवैराग्याणां रत्नत्रयत्वात्ततो जीवन्मुक्तेराहत्यरूपायाः परैरिष्टत्वात् । .....वैराग्य, तत्त्वज्ञान और तत्स्वाभिनिवेशरूप प्रधान के संसर्गसे जीवन्मुक्ति माननेवाले आप सांख्योंके " पोतकाक " न्यायसे जैनमतमें प्रवेश करना ही न्याय्यप्राप्त होता है। क्योंकि तत्त्वाथाका श्रद्धान और जीव आदि तत्त्वोंका ज्ञान तथा इष्ट, अनिष्ट पदार्थो रागद्वेष न करना रूप . वैराग्यको ही जैनमत रलत्रय माना गया है। उन तीन रत्नोंसेही अनन्तचतुष्टय, समवसरण आदि लक्ष्मीसे युक्त मोक्षके उपदेष्टा तीर्थकर भगवानकी अर्हन्त अवस्थारूप जीवन्मुक्तिका उत्पन्न होना दूसरे स्याद्वादियोंने स्वीकार किया है। : यदपि द्रष्टुरात्मनः स्वरूपेऽवस्थानं धानं परममुक्तिनिवन्धनं तदपि न रत्नत्रयास्मकता व्यभिचरति, सम्यग्ज्ञानस्य पुंरूपत्वात्, तस्य तत्वार्थश्रद्धानसहचरितत्वात्, परमौदासीन्यस्य च परमचारित्रत्वात् ।
और जो आपने अपने दर्शनसूत्रका प्रमाण देकर यह कहा था कि द्रष्टा आत्माका अपने स्वरूपमें स्थित हो जानारूप ध्यान परममुक्तिका कारण है। वह आपका कहना भी भात्माके