Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वाचिन्तामणिः
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अप् , तेज, वायु, आकाश, काल, दिक्, आत्मा, मन, इन नौ द्रव्योंमें एकदम रहती है। एक गुणवजाति लप, रस आदिक चौवीस गुणों में वर्तती है। कर्मस्वजाति भी उत्क्षेपण आदि पांच काँमें ठहरती है इत्यादि । तथा दो द्रव्योंमें रहनेवाली द्विस्वसंख्या तथा तीनमें रहनेवाली त्रिलसंख्या, चार द्रव्यों में रहनेवाली चतुष्ट संख्या आदि भी एक एक होकर पर्याप्ति नामक सम्बन्धसे अनेकोंमें रहती हैं। पृयवस्व, संयोग, और विभागगुण भी एक होकर अनेकोंमें रहते हैं। इसी तरह एक घट अवयवी द्रव्य दो कपालोमे निवास करता है तथा एक पट अवयवी द्रव्य अनेक तन्तुओमे रहता है। तथा आकाश, काल, आस्मा, दिशा ये चार व्यापक द्रव्य स्वयं अकेले अकेले होकर भी यत्तिताके अनियामक संयोगसम्बन्धसे घट, पर आदि अनेक देश, देशान्तरोंके पदार्थोंमें विद्यमान रहते हैं । अन्यकार कहते हैं कि उक्त प्रकार वैशेषिकका मंतव्य अच्छा नहीं है । हमारे इस पूर्वोक्त कथनसे समवाय और सत्ताको अनेकपना सिद्ध करनेसे वैशेषिकोंका यह उक्तमन्तव्य स्खण्डित हो जाता है । भावार्थ- आकाश, आत्मा, आदि सर्वथा एक नहीं हैं, प्रदेशोंकी अपेक्षासे अनेक है। जो आकाशके प्रदेश बर्माईमें हैं वे कलकत्ता में नहीं है। जो मस्तकमै आत्माके प्रदेश है। वे पांवोंमें नहीं है नहीं तो बम्बईमें कलकत्ता घुस पडेगा । माथेमें पांव लग बैठेंगे समझे । सर्व प्रकारसे जो एक है उसका इस प्रकार एक समयमै पूर्णरूपसे अनेकोंमें ठहरनेका विरोध सिद्ध हो चुका है। इस दंगसे दूसरे वैशेषिकोंका अपनी रुचि करके कल्पना किया गया नित्य और एक ऐसा समवाय पदार्थ सिद्ध नहीं हो सकता है । जिस समवाय सम्बन्धसे कि ईश्वरका ज्ञानके साथ सदासे ही समवायीपना सिद्ध हो जाता, और ईश्वरको ज्ञानस्वभावयाला ठहराया जाता, अर्थात् उस असिद्ध समवायसे ईश्वर में विज्ञता नहीं आ सकती है।
कीरशस्तहिं समवायोऽस्तु ?
थक कर वैशेषिक पूछते हैं कि तब तो आप जैन लोग ही बतलाइये कि समवाय कैसा होवे ? जो कि वह मान लिया जावे इसपर आचार्य अपना सिद्धांत कहते हैं।
ततोऽर्थस्यैव पर्यायः समवायो गुणादिवत् । तादात्म्यपरिणामेन कथंचिदवभासनात् ॥ ७४ ॥
इस कारणसे सिद्ध हो जाता है कि रूप, रस, काला, नीला, खट्टा, मीठा, संयोग, चलना, फिरना, आदि गुणक्रियाएँ जैसे अर्थकी ही पर्याय हैं उसी प्रकार समवाय संबंध भी परिणामी द्रव्यकी पर्यायविशेष है क्योंकि कर्यचित् तादाम्य परिणामसे परिणमन करता हुआ जाना जा रहा है।
प्रान्त कथंचिद्रव्यामेदेन प्रतिमासमानं समवायस्येति न मन्तव्यं, संवेदैकान्तस्य ग्राहकाभावात्। न हि प्रत्यक्षं तद्वाहकं तत्रेदं द्रव्यमयं गुणादिरयं समवाय इति मेदप्रतिभा