Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तस्वार्थचिन्तामणिः
नैयायिक अत्यंत भेदको सिद्ध करनेके लिये अनुमान प्रमाण देते हैं कि रूप, रस आदिक गुण, और पृथ्वी, जल, घट आदि गुणी द्वन्य, तथा हलन, चरून आदि किया, और उस किया वाले बादल, घोडा आदि क्रियावान् पदार्थ, एवं घटत्व, द्रव्यत्व आदि जातियां और उन जातियोंसे युक्त पट, आत्मा, गुण आदि पदार्थ (ये सम्पूर्ण पक्ष हैं ) परस्परमें सर्वथा भिन्न है ( साध्य ) क्योंकि इनका भिन्न भिन्न ज्ञान होरहा है । ( हेतु ) जैसे कि घर, पट, पुस्तक आदिको भिन्न भिन्न ज्ञान होनेसे ही भित्र मानते हो ( अन्वय दृष्टान्त ) उसी प्रकार घट पृथक् दीख रहा है और उसका रूपगुण निराला दीख रहा है, घोडेसे दौडना अतिरिक्त दीख रहा है । यहां आचार्य कहते हैं कि आपका यह उक्त अनुमान भी उन गुण, गुणी आदिके सर्वथा भेदको सिद्ध नहीं करपाता है। आत्मा शार, घटसे सा, बोडे दीडता और घटसे पक सर्वथा अतिरिक्त तो दीखते नहीं हैं। हां ! कथंचिद् भिन्न दीख रहे हैं । जैसे कि आत्मा नहीं बदलता है किंतु घटज्ञान, पटज्ञान अनेक होते रहते हैं । घट घही रहता है किंतु पकानेपर कालेसे लालरूप हो जाता है, चलना छोरकर घोडा खडा होजाता है । इस प्रकारका कथंचिद् भेष प्रतिभासनरूप हेतुसे उनमें परस्पर कथंचिद्भेद ही सिद्ध होगा । जो कि आपके सर्वथा भेदरूप साध्यसे विपरीत है । अतः आप वैशेषिकोंका हेतु विरुद्ध हेत्वाभास है । उससे सर्वथा भेदकी सिद्धि नहीं होती है।
न हि गुणगुण्यादीनां सर्वथा भेदप्रतिभासोऽस्ति कचिचादात्म्यप्रतिभासनात् । तथाहि-गुणादयस्तखतः कथंचिदभिन्नास्ततोऽशक्यविवेचनत्वान्यथानुपपत्तेः । ___गुण गुणी, क्रिमा क्रियावान्, विशेष और नित्यद्रव्य आदिका सर्वथाभेदरूपसे प्रकाशन नहीं होता है किंतु कथंचित् तादाम्यरूपसे ही प्रतिमासन हो रहा है । जैसे कि रूप, रस, आदि गुण तो घटकी आत्मा हो रहे है । शान आत्मामे ओतप्रोत तत्स्वरूप हो रहा है। इसी बातको स्पष्ट कर कहते हैं कि गुण, जाति, आदि पदार्थ गुणादिवानोंसे कथंचिद् अभिन्न हैं ( प्रतिज्ञा ) अन्यथा यानी यदि अभिन्न न होते तो उनका पृथक् पृथक् करना अशक्य न होता ( हेतु ) अर्थात् आत्मासे ज्ञान खींचकर अलग नहीं रख दिया जाता है। ऐसे ही घटसे रूप भी निकालकर पृथक् नहीं दिखाया जासकता है यों इस हेतुसे गुण, गुणी आदि किसी अपेक्षासे अभिन्न हैं । ।
किमिदमशक्यविधेचनत्वं नाम ? विवेकेन ग्रहीतुमशक्यत्वमिति चेदसिद्ध गुणादीनां द्रव्याद्भेदेन ग्रहणात्, तबुद्धी द्रव्यस्याप्रतिभासनात्, द्रव्यबुद्धौ च गुणादीनामप्रवीतेः। देशभेदेन विवेचयितुमशक्यत्वं तदिति चेत्, कालाकाशादिभिरनैकान्तिकं साधनमिति कश्चित् ।
यहां किसी वैशेषिकका कटाक्ष है कि जैनोंका माना हुआ गुणगुणियोंका परसर पृथक्भाव न कर सकना मला इसका भाव क्या है । बताओ यदि जैन लोग यह कहें कि गुण आदिकोंको