Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तस्याचिन्तामणिः
संयोगसे जिनदत्तका पगडीके साथ हो रहा संयोग सम्बन्ध भिन्न है । दण्डपुरुषके संयोगसे पट और धूपका संयोग अभिन्न नहीं प्रतीत हो रहा है 1
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संयोगत्वेनाभेद एवेति चेत्, तदपि ततो यदि भिनमेव तदा कथमस्यैकत्वे संयोगयोरेकत्वम् ? तनाना संयोगोऽभ्युपेयोऽन्यथा स्वमतविशेषात् ।
अनेक संयोगगुणे में रहनेवाली संयोगत्वजाति एक है। यदि उस जातिकी अपेक्षाले संयोगका अमेदही मानोगे तो भी सम्पूर्ण संयोग एक नहीं हो सकते हैं। क्योंकि उन संयोग नामक गुणोंमें रहनेवाली वह संयोगत्वजाति भी यदि आपने आधारभूत उन संयोगोसे सर्वथा भिन्न ही मानी है। तब तो उस मिन्त्र जातिके एक होनेपर भी इन दो संयोगमें या अनेक संयोगों में एकपना कैसे आ सकता है? बताओ। इस कारणसे संयोग अनेक मानने चाहिये और संयोगोंको अनेक मानते भी हैं। यदि न मानोगे तो आपका अपने सिद्धान्तसे विरोध हो जावेगा। क्योंकि आपके दर्शन में संयोगगुण अनेक माने गये हैं। दान्तको मिगानेके लिये अभीष्ट दृष्टान्तको बिगाडने चले हैं। जलं वावदूकतया ।
तद्वत्समवायोऽनेकः प्रतिपद्यताम्, ईश्वरज्ञानयोः समवायः, पटरूपयोः समवाय इति विशिष्टप्रत्ययोत्पत्तेः ।
बस, उन संयोगोंके समान समवायसम्बन्ध भी अनेक मानने या समझ लेने चाहिये । ईश्वर का ज्ञान से समवायसम्बन्ध भिन्न है तथा पटका और रूपका समवाय मिराका है इसी प्रकार नीबूसे रसका समवाय अतिरिक्त है, इत्यादि विलक्षण ज्ञानोंके होनेसे समवाय भी अनेक सिद्ध होजाते हैं । यह युक्तियोंसे साधा गया सिद्धान्त है ।
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समवायिविशेषात्समवाये विशिष्टः प्रत्यय इति चेत् तर्हि संयोगिविशेषात्संयोगे विशिष्टप्रत्ययोऽस्तु । शिथिलः संयोगो, निचिडः संयोग इति प्रत्ययो यथा संयोगे तथा नि समवायः कदाचित्समवाय इति समवायेऽपि ।
नैयायिक कहता है कि प्रतियोगितासम्बन्धसे समवायसम्बन्धके आधार, रूप, ज्ञान, रस आदि अनेक हैं और अनुयोगिता संबन्ध से समवायके अधिकरण मी घट, आत्मा, नीबू आदि अनेक हैं। अतः उन समवायवाले आश्रमोंके अनेक हो जाने से उनमें रहनेवाले एक समवाय में भी क्लिक्षण विलक्षण रूपके ज्ञान होजाते हैं। जैसे कि मेघजलके एकसा होनेपर भी उसकी तदाश्रय अनेक वृक्षों में भिन्न भिन्न परिणति होजाती है। इसी तरह समवायवालोंकी विशेषतासे ज्ञान नाना हो जाते हैं किन्तु समवाय एक ही है । मन्यकार कहते हैं कि यदि आप नैयायिक ऐसा कहोगे तबतो संयोगसम्बन्धको भी एक ही मान लेना चाहिये। वहां भी प्रतियोगितासम्बन्धसे संयोग के आश्रय