Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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सयाचिन्मामनिः
रत्नत्रय-स्वरूपका व्यभिचार नहीं करता है किन्तु अविनाभावी है । सूत्रमें द्रष्टुः स्वरूपे, और अवस्पान, ये तीन पद हैं। वहां पुरुषका स्वरूप ज्ञानचेतनामय ही है । द्रष्टा कहनेसे सम्बदृष्टिपन प्राप्त होजाता है और अवस्थितिसे आत्मामें स्थितिरूप चारित्र आभाता है अर्थात् तत्त्वार्यश्रद्धानके साथ रहने वाला सम्यग्ज्ञान आत्माका अभिन्न स्वरूप है और उत्कृष्ट उदासीनता ही परमचारित्र है तया च मोक्ष अवस्या, आत्माकी तीनों रूप हो जाना परिणति है।
पुरुषो न शानखमाव इति न शक्यव्यवस्थम् । तथाहि,
सांख्य लोग ज्ञानको प्रकृतिका विकार मानते हैं। आत्मा बैतन्य मानते हैं जो कि ज्ञानसे भिन्न है। अतः वे कहते हैं कि आत्माका स्वमाव ज्ञान नहीं है । इसपर आचार्यका कहना है कि उक्त बातको आप अच्छी तरह प्रमाणोंसे निर्णीत नहीं कर सकते हैं, इसका स्पष्टीकरण आगेकी बार्तिकमे कहते हैं।
यद्यज्ञानस्वभावः स्यात्कपिलो नोपदेशकृत् । सुषुप्तवत्प्रधानं वाऽचेतनत्वाद् घटादिवत् ॥ ६४ ॥
आपका माना हुआ कपिल ऋषि यदि ज्ञानस्वभाववाला नहीं है तो गाढ सोते हुए पुरुषके समान मोक्षका उपदेश नहीं कर सकता है तथा कपिलकी आत्मासे सम्बन्धको प्राप्त हुई प्रकृति भी उपदेश नहीं कर सकती है क्योंकि वह अचेतन है । जैसे कि घट, पट आदि अचेतन पदार्थ उपदेश नहीं देते हैं।
यव हि सुषुप्तपचवज्ञानरहितः कपिलोऽन्यो वा नोपदेशकारी परस्य घटते तषा प्रधानमपि स्वयमचेतनत्वात्कृटादिवत् ।
जैसे ही सोते हुए मनुष्यके समान तत्त्वज्ञान और वक्तृत्वकलासे रहित कपिल या दूसरे कोई बाचसतिमिश्र, ईश्वरमट्ट, आदि विद्वान् मी मोक्षके उपदेश करनेवाले आप दूसरे सांस्यों के यहां नहीं घटित होते हैं । उसी प्रकार जड प्रकृति भी उपदेश नहीं कर सकती है । क्योंकि वह अपने मूलस्वभावसे अचेतन मानी गयी है । जैसे कि घट, पट, मृतशरीर आदि स्वयं अचेतन होकर व्याख्यान नहीं कर सकते हैं । जो स्वयं चेतन होकर स्वाभाविक ज्ञानके तादात्म्यवाला है वहीं उपदेष्टा हो सकता है। किन्तु सांख्योंके यहां विधम घटना है उनका आत्मा चेतन तो है। शानवान् नहीं और प्रकृति ज्ञानवती मानी है किन्तु चेतनात्मक नहीं।
वलहानसंसर्गाचोगी शानखमाव इति चेत् ।