Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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वस्वाचिन्तामणिः
जानेपर आल्लाका केवल चैतन्यश्वमादमें स्थिर हो जाना। तत्त्वज्ञानसे जब जीवन्मुक्ति हो जाती है उस समय योगी संसारमै कुछ दिनोंतक ठहरते हैं जक्तक ठहरते हैं। तबतक मोक्ष के उपयोगी तत्वोंका उपदेवा देना बन जाता है और जीवन्मुक्तिके अंतसमयमें अतिशययुक्त समाधिसे आयु, शान, विचार, आदि संस्कारोंका नाश होजानेपर परममोक्षको प्राप्त हो जाते हैं। यह हमारी तत्त्वशानसे मोक्ष होनेकी प्रतिज्ञाका अर्थ है । यही हमारा विश्वास है।
इति वदभन्धसर्पविलप्रवेशन्यायेन स्यावादिदर्शने समाश्रयतीत्युपदर्यते ।
पूर्वोक प्रकारसे कहता हुभा सांख्य " अन्धसर्प-विलपवेश " स्पायसे स्याद्वादियों के मसे सिद्धान्तका ही आश्रय लेगहा है अर्थात् जैसे कि अन्धा साप इन्द्रियलोलुपतासे इधर उधर घूमना चाहता है किन्तु घातक जीवोंके भयसे शीघ्र ही अपने बिलमें प्रवेश कर जाता है । यदि वह सूझता होता तो इधर उधर कोई निष्कण्टक मार्ग भी दीख जाता, अतः निदोष और भयरहित अपने विलके समान उस सर्पको दूसरा अवलम्बमार्ग ही नहीं है । उसी प्रकार ज्ञान और समाधिरूपचारित्रसे ही मोक्ष माननेपर सांख्यको भी रत्नत्रयकी शरण लेना आवश्यक हो जाता है। इसी बातको विखलाते है।
मिथ्यार्थाभिनिवेशेन मिथ्याज्ञानेन वर्जितम् । यत्पुंरूपमुदासीनं तच्चेद्वयानं मतं तब ।। ६२ ॥ . हन्त रत्नत्रयं किं न ततः परमिहेष्यते ।
यतो न तन्निमित्तत्वं मुक्तेरास्थीयते त्वया ॥ १३ ॥
सांख्यके शोधन किये गये उक्तकथनसे यह बात प्रतीत होती है कि पदार्थों के मिथ्याश्रद्धान. से और मिथ्याज्ञानसे रहित होरहा जो उपेक्षा स्वरूप उदासीन पुरुषका धर्म है वहीं समाधिरूप ध्यान है । यदि तुम्हारा यह मन्तव्य है तर तो खेदके साथ कहना पडता है कि अकेले तत्त्वज्ञादसे ही मोक्षके होनेका आग्रह आपने व्यर्थ पकड रखा है । आपके उक्तकयनसे तो ज्ञानसे अतिरिक्त अद्वान और चारित्र भी कारण बन जाते हैं । इस प्रकार यहां उत्कृष्ट रलत्रय ही मोक्षका मार्ग सिद्ध होता है । अतः आप रत्नत्रयको ही मोक्षका मार्ग क्यों नहीं अभीष्ट करते हैं ! जिससे कि तुम्हे उस रत्नत्रयके निमित्तसे मुक्तिको श्रद्धा स्वीकार न करनी पड़े अर्थात् रत्नत्रय ही मोक्षका कारण व्यवसित हुआ यह आपको विश्वासमें लाना चाहिये ।
ननु च विध्यार्थाभिनिवेशेन वर्जितं पुरुषस्य स्वरूप न. सम्यग्दर्शनं तस्य तवार्थबधानलक्षणत्वात् । नापि मिथ्याज्ञानेन वर्जितं तत्सम्यग्ज्ञानं तस्य स्वार्थावायलक्षणत्वात् ।