Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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होकर संसारमै ठहर आना बन जाता है। तीर्थंकर भगवानकी आयु विष, वेदना, रक्तक्षय, आदि कारणों से मध्य में ही हिन होनेके योग्य है नहीं, जिससे कि उपक्रम के अधीन आयुः कर्मकी उदीरणा होकर औपक्रमिक निर्जरा हो जाती । अर्थात् साधारण कर्मभूमियां मनुष्य तिर्योंकी या गुरुदरा, पाण्डव आदि सामान्यकेवलियों या अन्तकृत केवलियोंकी भी आयुका अपवर्तन हो जाता किंतु तीर्थंकरोंकी आयुका मध्यमे किसी कारण से क्षय नहीं हो पाता है । वे भुज्यमान पूर्ण आयुष्यको भोगते हैं और जब उस आयुष्यकर्म का क्षय नहीं हुआ तो उससे अविनाभाव रखनेवाले नाम, गोत्र, तथा वेदनीय इन तीन कमका उदय भी तीर्थकर जिनेंद्रदेवले विद्यमान रहता है, तिस कारण चार अघातिया कर्मोंके वशवर्ती भगवान् संसार में ठरहते हैं और अपने अनंतज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, तीर्थंकरल, स्वरनामकर्म तथा मन, वचन, कायके योग तथा मध्यजीवोंके पुण्यविशेको निमित्त पाकर मोक्षमार्गका उपदेश देते हैं । यह बात कैसे भी विरुद्ध नहीं पड़ती है ।
कुतस्तर्हि तस्यायुःक्षयः शेषाधातिकर्मक्षयश्च स्याद्यतो मुक्तिरिति चेत्
यहां शंकाकार पूंछता है कि तो फिर उन भगवान्के आयुकर्मका क्षय तथा बाकी बचे हुए वेदनीय, गोत्र और नामकर्मका क्षय किस कारणसे होगा ? बताओ जिससे कि सम्पूर्ण कमों के क्षय होनेपर भगवान् को मोक्ष होसके, ऐसा कहनेपर तो आचार्ये उत्तर देते हैं । सुनिये ।
फलोपभोगादायुषो निर्जरोपवर्णनादया विकर्मत्रयस्य च शेषस्याधिकास्थितेर्दण्डकपाटादिकरण विशेषाद पकर्षणादिकर्मविशेषाद्वेति ब्रूमः ।
आयुष्य कर्मकी निर्जरा तो संसारमै उतने दिनतक ठहरना रूप उसके फलके उपभोग करनेसे ही मानी गयी है और बाकीके तीन अघातिया कर्मोकी स्थिति यदि आयुकर्मके बराबर है, तब तो आयुकर्मके साथ साथ उन तीनों कमौका भी फल देकर क्षय होजाता है । किन्तु आयुसे वेदी आदि की स्थिति यदि अधिक है तो दण्ड, कपाट, मतर और लोकपूरणरूप विशेष क्रिया करने से या आलीयपरिणामोंसे होनेवाले अपकर्षणविधान आदि क्रियाविशेषसे निर्जरा कर दी जाती है ऐसा हम जैन साटोप कहते हैं । मात्रार्थ जैसे कि नींद कम आनेपर जंभाईसे शरीका आलस्य कम होजाता है, जंभाई अकडनके लिये हम चलाकर प्रयत्न नहीं करते हैं। उसी प्रकार बिना इच्छा, मयत्नके जिनेन्द्र देवके आयुकर्मके बराबर शेष तीन कर्मोकी स्थिति करने के लिये केवल मुद्धात होता है । उसमें सात समय लगते हैं । प्रथम समयमै आत्मा के प्रदेश दण्डके समान हो जाते हैं । पूर्वमुख या उत्तरमुख पद्मासन बैठे हुए था खड़े हुए केवलीके शरीर विन्यास के अनुसार शरीरबराबर मोटी सात राजू लम्बी आत्मा हो जाती है । दूसरे समय are आकार होकर सात राजू लम्बे, सात राजू चौंडे और शरीरकी मोटाईके अनुसार मोटे होकर
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वे प्रदेश कि