Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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उक्त दोष परिहारकी इच्छा से आप सांख्य यदि यह कहोगे किं पूर्ण प्रत्यक्षज्ञानके समान कालमें ही यह योगी उस मोक्षमार्गका उपदेश देता है। यह भी आपका विचार साररहित है क्योंकि वह मोक्षमार्गका उपदेश सर्वज्ञतापूर्वक होता है। यदि आप सर्वज्ञता उत्पन्न होनेके ठीक उसी समय मोक्षका उपदेश मानेंगे तो सम्पूर्ण तत्त्वोंका प्रत्यक्षज्ञान होनेपर पश्चात् ( बादमे ) मोक्षका उपदेश हुआ करता है इस सिद्धान्तका विरोध हो जावेगा, कार्यकारणभाव पूर्वापर- क्षणवर्ती पदार्थों में होता है । टेडे और सीधे गौके सींग समाचसमयवालों में नहीं होता है । सर्वज्ञ ज्ञानके पीछे अव्यवहित उत्तर क्षण तो मुक्त होनेवाला है । क्या एक ही समय मोक्षमार्गका उपदेश दे देखेंगे ऐसे उपदेशको सुनने के लिये कौन कहांसे आयेगा, और एक समयमै उपदेश भी क्या हो सकेगा ! तथा प्रत्यक्ष तत्त्वज्ञानके पीछे शीघ्र ही मुक्ति हो जायेगी तो आकाश के समान शरीररहित मुक्तजीवके Earth प्रवर्तन होना भी नहीं बन सकता है। क्योंकि शरीरधारीपनसे अवस्थित रहना जब sana है तो श्रेष्ठ मार्गका उपदेश देना तो बहुत दूरकी बात है ।
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संस्कारस्याक्षयात्तस्य यद्यवस्थानमिष्यते ।
राक्षये कारणं वाच्यं राज्ञानात्परं त्वया ॥ ५४ ॥
यदि आप यह कड़े कि जैसे जैनलोग केवलज्ञान होने पर भी आयुकर्मके अधीन होरहे सर्वज्ञकी संसार में स्थिति मानते हैं । उसी प्रकार हम भी पूर्वके आयु नामक संस्कार का क्षय न होनेसे उस कपिल ऋषिका संसार में स्थित रहना और स्थित होकर सज्जनोंको मोक्षमार्गका उपदेश देना इष्ट करते हैं। आचार्य कहते हैं कि ऐसी दशा में तुमको उस संस्कारके क्षय करने में तत्वज्ञानसे निराला कोई अन्य कारण कहना पड़ेगा, तभी तो मोक्ष हो सकेगा ।
न हि तत्त्वज्ञानमेव संस्कारक्षये कारणमवस्थानविरोधस्य तदवस्थत्वात् ।
तत्त्वज्ञानको ही आयु नामक संस्कारके क्षयका कारण आप सांख्य नहीं मान सकते हैं । क्योंकि तत्त्वज्ञान नामक कारण होनेपर उससे अतिशीघ्र आयुका भी नाश हो जावेगा, सब तो संसारमें कुछ दिन ठहरनेका फिर भी विरोध बना ही रहेगा अर्थात् उपदेश देनेके लिये वे संसार में नहीं ठहर सकेंगे ।
संस्कारस्यायुराख्यस्य परिक्षयनिबन्धनम् ।
धर्ममेव समाधिः स्यादिति केचित्प्रचक्षते ॥ ५५ ॥ विज्ञानात्सोऽपि यद्यन्यः प्रतिज्ञाव्याहृतिस्तदा । स चारित्रविशेषो हि मुक्तेर्मार्गः स्थितो भवेत् ॥ ५६ ॥