Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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केषाञ्चिदगर्हितत्वश्चेति ।
विचारशील पुरुष तो पशुओंकी हिंसा और धनिकोंकी हिंसाकी बराबर निन्दा करते हैं। hat is यहां निन्दा न होना भी दोनों में एकसा है । स्यात् शायद मीमांसक यह कहे कि कालीदेवीके उपासक या यज्ञ करनेवाले कर्मकाण्डी पुरुष यज्ञमें होनेवाले पशुवधकी निंदा नहीं करते हैं: -- - इसका उत्तर सुनिये यों तो डाकेवाले या धर्मके नामपर धन और प्राणों को लेनेवाले खारपटिक लोग भी धनिकोंके मारने में निंदा नहीं समझते हैं । तथा च इस प्रकार कतिपय इंद्रियलोलुप जीवोंकी अपेक्षासे निंदा न होना तो पशुऔर after दोनों में समान है ।
aat न सघनवधाग्निहोत्रयोः प्रत्यवायतरसाधनत्व व्यवस्था ।
"इस कारण से मीमांसकों की मानी गयी धनिकों के मारनेमें पाप और उससे न्यारी पशुबध पूर्वक किये गये अमित्र यज्ञं स्वर्गप्राप्तिके सिद्ध कराने की पुण्यव्यवस्था ठीक नहीं है अर्थात् asia a यदि सदोष है तो यज्ञ भी सदोष है । यदि यज्ञ निर्दोष है तो निका भी निर्दोष है ।
प्रत्यक्षादिप्रमाणचा नाग्रिहोत्रस्य श्रेयस्करत्व सिद्धिरिति नास्यैव विहितानुष्ठानत्वं, तो हिंसात्वाभावाद सिद्धो हेतुः स्यात् ।
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प्रत्यक्ष और अनुमान आदि प्रमाणोंके बलसे तो अभिहोत्र यज्ञका कल्याणकारीपन सिद्ध हो ही नहीं सकता है। इस प्रकार इस धनिकोंके को टालकर केवल अमित्रके ही शास्त्रोक्त अनुष्ठानपना नहीं है, जिससे कि हिंसाका कारणपना न होनेसे हम जैनोंकी ओरसे अभिहोत्रको स्वसाधनता के अभावको सिद्ध करनेमें दिया गया हिंसाका कारणपनारूप हेतु असिद्ध होवे, अर्थात् हमारा हिंसाहेतुत्व " अभिहोत्र पक्षमें रह जाता है । अतः सद्धेतु है । असिद्ध हेत्वाभास नहीं है, जो कि मीमांसकने दोष उठाया था ।
तन्न प्रकृतचोदनायां बाधकभावनिश्चयादर्थतस्तथाभावे संशयानुदयः पुरुषवचनविशेषवदिति न तदुपदेशपूर्वक एव सर्वदा धर्माद्युपदेशो येनास्य परोपदेशानपेक्षत्वविशेपचमसिद्ध नाम |
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इस कारण यह सिद्ध हुआ कि प्रकरणमें प्राप्त हो रहे वेदके लिङ्, लोट, तव्य प्रत्ययान्त प्रेरणावाक्य बाधकप्रमाणकी सत्ताका निश्चय है | अतः वस्तुतः सत्य अर्थ के कहनने संशयका अनुत्पन्न होना नहीं है । साधारण मनुष्यों के विशेष वचनोंके समान वैदिक वचनों में भी