Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
सुनिश्चितासंभव द्वाधकप्रमाणेऽपि नेकान्तात्मनि वस्तुनि दृष्टिमोहोदयात्सर्वथैकाताभिप्रायः कस्यचिदुपजायते स चोपप्लवः सम्यगध्यते इति न कश्चिद्दोषः प्रतिषेध्यात्रिकरणाप्रतिपत्तिलक्षणः प्रतिषेध्यासिद्धिलक्षणो वा ?
यह है कि सम्पूर्ण वस्तुएँ ( पक्ष ) परमार्थरूपसे, यथार्थ सिद्धांतनिश्चयसे अनेक धर्म स्वरूप है ( साध्य ) क्योंकि अनेक धर्मोकी सिद्धि करने का होना अच्छ तरहसे निश्चित है | ( हेतु ) इस प्रकार प्रमाणसे सिद्ध होनेपर भी दर्शनमोहनीय कर्मके उदयसे किसी एक मिध्यादृष्टि जीव सर्व प्रकारोंसे नित्यल या अनित्यपनरूप एकधर्म के माननेका आग्रह उत्पन्न हो जाता है और स्याद्वादी विद्वान् लगे हाथ समीचीननयोंसे उस उपद्रवका बाधन कर देते हैं । जैसे कि प्रचण्ड (सेज) धूप से चले आये हुए पुरुषको मकानमें चमकते हुए पीले पीले तिलमिले दीखते हैं किंतु विश्रांति लेनेसे समीचीनदृष्टि हो जानेपर उस चकाचा निषेध कर दिया जाता है । इसी प्रकार प्रकृतमें भावस्वरूप अनेकांत सिद्ध करने में भी कोई दोष नहीं है । यदि सर्वथा एकांतोंका अभावरूप अनेकांत माना जाता तब तो एकांतोंके अभाव जाननेमें निषेध करने योग्य, ( लायक ) एकांतोंके अधिकरणोंका म जाननास्वरूप अथवा प्रतियोगी के स्मरणार्थ करने योग्य सर्वथा एकांत की असिद्धिस्वरूप दोन सम्भावित था, किंतु अनेकांतसिद्धिमें उक्त वार्चा है नहीं ।
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मध्यास्तदधिकरणस्य वचनाद्यनुमान सिद्धिसद्भावात्तदभिप्रायस्य च तदनुपलम्भनानिषेधे साध्ये कुतो न दोष इति न वाच्यम् ।
मीमांसक कहते हैं कि जिस आत्मामें सर्वथा एकांत माना जा रहा है उस कल्पित एकांतोंके अधिकरणरूप मिध्यादृष्टीकी हम कुगुरु, कुदेव, कुतत्त्वों श्रद्धानसे या मिथ्यात्वप्रयुक्त वचनों आदि अनुमानद्वारा सिद्धि कर लेते हैं और मिध्यादृष्टियोंके स्वीकार करनेसे उनके अभि प्रेत एकांतोंकी भी कल्पना कर लेते हैं, किंतु उन सर्वथा एकांतोंका वस्तुतः उपलम्भन न होने से निषेध सिद्ध कर दिया जाता है । अतः एक प्रकार से अभाव जाननेकी सामग्री भी बन गयी, ऐसा होनेपर एकांतोंके अनुपलम्भसे एकांतोंका अभाव सिद्ध करने में आप जैनोंके ऊपर वह दोष कैसे नहीं होता है ? जैसे कि आपने हम मीमांसकोंको दोष दिया था वह दोष तो आपको भी लगेगा । आचार्य कहते हैं कि यह मीमांसकों को कहना नहीं चाहिये कारण कि
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अनेकान्ते हि विज्ञानमेकान्तानुपलम्भनम् ।
द्विधस्तनिषेधश्च यतो नैवान्यथा मतिः ॥ ३० ॥