Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तस्वार्थचिन्तामणिः
पेयादृते कचित् " आपके यहां भी प्रतिषेध्यके बिना संज्ञीका निषेध हो जाना नहीं माना है । भावार्थ -- हमारे सर्वज्ञके निषेध न कर सकने के समान आप जैन भी सर्वथा एकान्तोंका निषेध नहीं कर सकते हैं। यहां आचार्य कहते हैं कि मीमांसकों का यह प्रेरित कटाक्ष प्रतिभाशाली स्याद्वा दियोंके ऊपर नहीं चलता है। क्योंकि एकान्तोंके अभावको हम अनेकान्त नहीं मानते हैं किंतु अनेक भावरूप पदार्थ हैं, एकके समान अनेक शब्द मी भावों को कह रहा है । अनेक धर्मवाले पदार्थ प्रत्यक्ष - आदिप्रमाणोंसे ही सद्भावरूप सिद्ध हो रहे हैं। अशेषका अर्थ मूलरूपसे सम्पूर्ण होता है ।
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न हि स्वोपगमतः स्याद्वादिनां सर्वर्थकान्तः सिद्धोऽस्तीति निषेध्यो न स्यात् सर्वज्ञज्ञापकोपलम्भवत् । तदेतदचोधस् ।
Aries द्वारा सर्वज्ञ अभाव सिद्ध करने में दिया गया ज्ञापकानुपलम्भन हेतु अभावरूप है और साध्य भी अभावरूप है । अतः साध्यके और हेतुके जाननेमें जिसका अभाव किया जाय ऐसे निषेध्यरूप प्रतियोगीके जाननेकी आवश्यकता है। किंतु स्वयं स्याद्वादियों के मतसे सर्वथा एकान्तों के निषेधसे अनेकान्त सिद्ध नहीं होता है जिससे कि निषेध करने योग्य न होता, यानी यदि ऐसा होता तो सर्वज्ञज्ञापकोंके उपलम्भकी तरह सर्वथा एकान्तका भी निषेध नहीं कर सकते थे । स्याद्वादी विद्वानोंने दूसरोंके माने हुएको स्वयं स्वीकार करके सर्वथा एकान्त की सिद्धि मानी नहीं है। जो वस्तु सर्वथा है ही नहीं, उसके निषेध करने या विधि करनेका किसी माता पास अवसर नहीं है, सर्वज्ञके द्वारा भी जो कुछ ज्ञात होरहा है वह अनेक धर्मात्मकही है अश्वविषाण के समान एकान्तोंका निषेध करना हमको आवश्यक नहीं है । इस कारण जैनों के ऊपर मीमांसकों का यह कुचोद्यरूपी दोष नहीं है।
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अतः
प्रतीतेऽनन्तधर्मात्मन्यर्थे स्वयमबाधिते ।
को दोषः सुनयैस्तत्रैकान्तोपप्लवबाधने ॥ २९ ॥
मैं दाह करना, पाक करना, शोषण करना आदि धर्म पाये जाते है । इसी प्रकार जीव. पुद्गल आदि सम्पूर्ण पदार्थ अनेक धर्मो के आधारस्वरूप निर्वाध होकर अपने आप प्रमाणसे सिद्ध प्रतीत होरहे हैं। ऐसी दशा में श्रेष्ठ प्रमाणनयकी प्रक्रिया, और सप्तभंगीकी घटनाको जाननेवाले विद्वानोंके द्वारा सर्वथा एकान्तोंके तुच्छ उपद्रवको बाधा देने में क्या दोष संभावित है। अर्थात् कोई दोष नहीं है । जैसे तीव्र आतपसे सन्तप्त पुरुषको छायामें स्फुलिंग दीखते हैं, निषेध कर दिया जाता है। यानी शुद्ध छायाका प्रत्यक्ष होना दी दृष्टिदोषले हुये अनेक असत् धर्मीका निषेध करना है । वास्तव वहां निषेध कुछ नहीं, केवल शुद्ध छायाका विधान है ।
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उनका