Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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सत्त्वार्थचिन्तामणिः
सर्व ही पण्डों, डांकू और बोलशेविकोंने घनिकों [ कृपण ] और हिंसक क्रूर सिंह, सर्प, व्याघ्र आदि प्राणियोंका मारना मी धर्मरूपसे कहा है इस कारण फिर उक्त क्रियाएँ कल्याण करनेवाली क्यों न हो जायें । जिससे कि कल्याणको चाहनेवाले पुरुषोंके लिए वह धनिकों का मारना आदि ओक अनुधन नहोस, वर्धा के सहरा धनिकोंका मारना आदि भी कल्याण
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कारी हो जावेगा । यह आपादन हुआ ।
लोकगर्हितत्वमुभयत्र समानम् ।
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यदि आप मीमांसक धनिकोंके वधको लोकसे निंदनीय समझकर धर्म न कहोगे तो पशुवध मी लोक निंदनीय है । अतः यह भी धर्म नहीं हो सकता है। लोकमै निंदित होना तो दोनों स्थलपर समान है । वास्तव में देखा जाय तो क्षमा, दया, अहिंसा, ही सज्जनोंके प्रधान कर्तव्य है । परस्त्रीसेवन, डाँका डालना, मांस खाना, पशु-पक्षियों को मारना आदि अनन्त संसारके कारण ही हैं। स्कार्थी कषायी और इंद्रियलोलुप वञ्चकोंने मोले जीवोंको पापमागने फँसने और फंसने के लिए अनेक कुकर्मों को कर्तव्यकर्म बतलाया है । यह केवल धर्मकी आड महापापरूप शिकार खेलता है । कहीं पशुओंके वध करनेसे भी मला धर्म हो सकता है ? यदि ऐसा ही हो तो यजमान अपने इष्ट पुत्र, माता, पिता आदिका होम क्यों नहीं करता है ? जैसे यजमानको और उसके बालबच्चोंको मरनेका दुःख है उससे भी कहीं अधिक पशुओंको सरनेमें दुःख है । अतः ऐसे हिंसक यजमानको और हिंस्य पशुओंको कैसे भी अच्छी गति प्राप्त नहीं हो सकती है । धनिकों के मारने में भी लोगोंका गहरा स्वार्थ है । वे परोपकार और वात्सल्यका तो उपदेश देते हैं किन्तु अनेक अनथका मूल कारण धनिकोंका वधरूप कार्य करते हैं। क्या पुण्यपापरूप व्यवस्था संसारसे नष्ट हो सकती है ? कोई धनी है तथा अन्य दरिद्र है, एक विद्वान है दूसरा मूर्ख है, एक रोगी है दूसरा मीरोग | इसी प्रकार कोई स्त्री है, अन्य जीव पुरुष हैं, तीसरे प्रकारके पशु जीव हैं. अनेक बालक हैं, कई युवा है, बहुतसे बुढ्ढे हैं, कोई जह हैं, कोई अन्धा है, कितने ही चेतन T· इत्यादि प्रकार पुण्यपापके फलरूप संसारकी व्यवस्था है । केवल धनिकों को मार डालने से उक्त प्राकृतिक नियमका क्षय करना अपने पैरों में कुल्हाडा मारना है । संसारभर भेद स्वाभाविक है अर्थात् स्वात्मभूत अगुरुलघु गुणके द्वारा प्रत्येक वस्तु संपूर्ण परपदार्थों से भिन्न स्वरूप है । सर्वज्ञ और इन्द्र, चक्रवर्ती आदि भी आकर वस्तुओंके केवलान्वयी होकर पाये जा रहे हैं भेद भानको मिटा नहीं सकते हैं। किसी न किसीका प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अन्योन्याभाव, या अत्यन्ताभाव, सर्व वस्तुओं में पाये जाते हैं । धनवान् होना भी विशिष्ट पुण्यका कार्य है । सातावेदनीय आदि शुभ कर्मों के उन्हबसे यह जीव घन, पुत्र, आदि त्रिमूर्तिको प्राप्त करता है और पुण्यके न होनेसे अनेक दुःख झेला है, अतः स्वरपटके मत और मीमांसक मतके अनुसार चलने में लोकनिंदा होना बराबर है ।
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