Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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यहां मीमांसक कहते हैं कि "अग्निष्टोम, ज्योतिष्टोम, विश्वजित आदि यज्ञही कल्याण चाहनेवाले पुरुषोंके लिये शास्त्रोक्त विधिविहित कर्म हैं। क्योंकि वे कर्म ही इष्ट पदार्थोकी प्राप्तिरूप कल्याणको करनेवाले हैं किंतु धनिकोंका मारना देवमें लिखा हुआ कर्म नहीं हैं। क्योंकि वह उससे विपरीत है, दुःखका कारण है" । यदि आप मीमांसक यह कहोगे तब तो जैन पूछते हैं कि पशुओंके वध आदि अनेक कुकर्मोसे सम्पन्न हुआ यज्ञ भला कल्याणकारी कैसे है ! बताओ।
धर्मशब्देनोच्यमानखात्, यो हि यागमनुतिष्ठति तं " धार्मिक " इति समाचक्षते । यश्च यस्य कर्ता स तेन समाख्यायते यथा याचको लावक इति । तेन यः पुरुष निःश्रेयसेन संयुनक्ति स धर्मशब्देनोच्यते, न केवलं लोके, वेदेऽपि । “ यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धीपि प्रथमायासमिति । यअधि' शब्दवाच्य एवार्थे धर्मशब्दं समामनन्तीति 'शबराः ॥
हिंसामार्गके पोषक मीमांसादर्शनका भाष्य बनानेवाले शबरमुनि वेदसे भी कई गुनी हिंसाका पोषण करते हुए अपन बनाये भाष्यमें यज्ञोंका कल्याणकारीपन इस प्रकार सिद्ध करते है कि संसारमै और मीमांसकदर्शनमें यह प्रसिद्ध है कि धर्मसे ही सर्ग और मोक्षकी प्राप्ति होती है, वेदवाक्योंसे प्रेरित होकर किये गये ज्योतिष्टोम, अजामेघ, कुक्कुटमेध, भैसेका आलमन आदि अनेक यज्ञ ही धर्म शब्दसे कहे जाते हैं। जो पुरुष निश्चयसे यज्ञोंको करता है उसको सभी पुरुष धर्मात्मा कहते हैं। धर्मके करनेवालेको धार्मिक कहना भी ठीक है क्योंकि जो जिसको करता है, वह उस कर्मके द्वारा व्यवहार नाम पाता है । जैसे कि मांगनेवालेको याचक कहते हैं और काटनेवालेको लायक कहते हैं और पवित्र करनेवालेको पावक कहते है । इस कारणसे यह सिद्ध हुआ कि जो पदार्थ पुरुषको स्वर्ग, मोक्ष आदि कल्याणके मार्गसे संयुक्त कर देता है, वह पदार्थ धर्म शब्दसे कहा जाता है। यह बात केवल लोकमै ही नहीं है किंतु वेदमें भी यह नियम चला आरहा है कि "अनेक देवता यज्ञकी विधिसे यज्ञ रूपी पूजा करते भये । अतः वे यज्ञ ही सबसे पहिले प्रधान धर्म थे" । इस प्रकार लोक और बेदके नियमसे सिद्ध होता है कि यज़ धातुके यज्ञरूप वाच्य अर्थमें ही धर्म शब्द अनादिकालकी प्राचीन ऋविधारासे प्रयुक्त किया हुआ चला आ रहा है अतः यज्ञ ही धर्म है । इस प्रकार शबर ऋषिका मत है।
सोऽयं यथार्थनामा शिष्टविचारबहिर्भूतत्वात्, नहि शिष्टाः क्वचिद् धर्माधर्मव्यपदेशमात्रादेव श्रेयस्करत्वमश्रेयस्करत्वं वा प्रनियंति, तस्य व्यभिचारात् । कचिदश्रेयस्ककरेऽपि हि धर्मव्यपदेशो दृष्टो यथा मांसविक्रयिषो मांसदाने । श्रेयस्करेऽपि वाऽधर्मव्यपदेशो, यथा संन्यासे स्वघाती पापकर्मेति तद्विधायिनि कैश्चिद्भाषणात् ।
यहां आचार्य कहते हैं कि यह प्रसिद्ध शबर नाममात्रसे ही म्लेच्छजातीय या भील नहीं