Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
साधारण मनुष्य के पास भी पांचों इंद्रियोंसे एक समयमें मनके उस संबंध होने का कारण छोटा पुण्य विशेष है।
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तथा सति तस्य रूपादिज्ञानपञ्चकं नेन्द्रियजं स्यात् । किं तर्हि धर्मविशेषजमेवेति चेत्, सर्वार्थज्ञानमप्येवमीशस्यान्तःकरणजं माभूत् समाधिविशेपोत्थधर्मविशेपजत्वात् ।
यहां नैयायिक कटाक्ष करते हैं कि यदि सामान्य मनुष्यके छोटे पुण्यके द्वारा पैदा हुए पांचों ज्ञान एक समयमें मानोगे तो तैसा होनेपर उसका ज्ञान इंद्रियोंसे जायमान नहीं कहा जावेगा, किंतु विशेष पुण्यसे पैदा हुए पांच ज्ञान कड़े जायेंगे । इसके उत्तर में हम जैन कहते हैं कि एक समय में ईश्वरको होनेवाला सम्पूर्ण पदार्थों का ज्ञान भी मन इंद्रियसे जन्य न होसकेगा क्योंकि आपने चित्तकी एकाग्रतारूप विलक्षण समाधिके द्वारा उत्पन्न हुए पुण्यविशेषसे पैदा हुआ ईश्वरका ज्ञान माना है ।
तस्य मनोsपेक्षस्य ज्ञानस्यादर्शनाद दृष्टकल्पना स्यादिति चेत् । मनोऽपेक्षस्य वेदनस्य सकृत्सर्वार्थसाक्षात्कारिणः कचिद्दर्शनं किमस्ति येनादृष्टस्य कल्पना न स्यात् ?
सब जीवोंके ज्ञान मनकी अपेक्षा रखते हुए पैदा होते देखे गये हैं, विना मनको कारण माने कोई ज्ञान पैदा नहीं होता है । प्रत्येक आत्माके पास अणुरूप एक एक मन माना गया है । यदि ईश्वरके सम्पूर्ण अर्थोका ज्ञान मनकी नहीं अपेक्षा करके अकेले पुण्यसे पैदा हुआ माना जायेगा तो यह बिना देखे हुए नये कार्यकारणभावकी कल्पना समझी जायेगी। यदि आप नैयायिक ऐसा कहोगे तब तो हम जैन पूछते हैं कि मनकी अपेक्षा रख रहे और एक समयमै सम्पूर्ण पदार्थों का प्रत्यक्ष करनेवाला ज्ञानका क्या कहीं दर्शन हो रहा है ? जिससे कि मनका अनेक पदार्थोंसे युगपत् संबन्ध करना बिना देखे हुए पदार्थकी एक मनगढंत न समझी जावे ?
सर्वार्थज्ञानं मनोऽपेक्ष ज्ञानत्वादसदादिज्ञानवदिति चेत् न, हेतोः कालात्यापदिष्टत्वात् पक्षस्यानुमानबाधितत्वात् । तथाहि - सर्वज्ञविज्ञानं मनोऽखानपेक्षं सकृत्सर्वार्थपरिच्छेदकत्वात् यन्मनोऽक्षापेक्षं तत्तु न सकृत्सर्वार्थपरिच्छेदकं दृष्टं यथास्मदादिज्ञानं, न च daeति मनोऽपेक्षत्वस्य निराकरणात् ।
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यहां नैयायिक अनुमान करते हैं कि "ईश्वर के सम्पूर्ण पदार्थों का ज्ञान अपनी उत्पत्तिमें मन इन्द्रियकी अपेक्षा रखता है क्योंकि वह ज्ञान है, जैसे कि हम संसारी जीवों के ज्ञान मनकी अपेक्षा रखते हैं " । आचार्य कहते हैं कि यह नैयायिकोंका अनुमान ठीक नहीं है क्योंकि सर्वज्ञके ज्ञानको मनकी नहीं अपेक्षा करके पैदा होना सिद्ध हो चुकनेके बाद आपने मनकी अपेक्षा रखनेवाला अनुमान किया है | अतः आपके प्रतिज्ञावाक्यकी इस वक्ष्यमाण अनुमानसे बाधा हो जाने से आपका ज्ञानस्वहेतु कालात्ययापदिष्ट नामका हेत्वाभास है । हम आपके साध्यकी बाधा करनेवाले अनुमानको
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