Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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पेक्षत्व यह विशेषण सिद्ध होगया । विशेषणसे युक्त हेतु सूक्ष्म आदिक अर्थोके उपदेशरूपी पक्षने रह गया । अतः असिद्धत्वामास भी नहीं है ।
सिद्धमप्येतदनर्थकं तत्साक्षात्कर्तुपूर्वकत्व सामान्यस्य साधयितुमभिप्रेतत्वान्न बा सर्वज्ञवादिनः सिद्धसाध्यता, नापि साध्याविकलत्वादुदाहरणस्यानुपपत्तिरित्यन्ये ।
कोई कह रहे हैं कि हेतुका इंद्रियोंकी नहीं अपेक्षा न रखनारूप विशेषण सिद्ध हुआ । यह ठीक है, किंतु कुछ भी लाभ न होनेसे व्यर्थ ही है। कारण कि पूर्वोक्त अनुमानद्वारा सूक्ष्म आदिक पदार्थों के उपदेश सामान्यरूपसे प्रत्यक्ष करनेवालेको कारणपना सिद्ध किया गया है। जब किसी भी प्रत्यक्ष से जान लेना साध्य कोटि में माना है, ऐसी दशा में उक्त प्रत्यक्षका इंद्रियोंकी नहीं अपेक्षा रखना रूप विशेषण व्यर्थ ही है । साध्यकी कुक्षिमें समान निवेश करनेपर यदि हम मीमांसक लोग सर्वज्ञको सिद्ध करनेवाले जैनके ऊपर सिद्धसाध्यता दोष उठावे कि सामान्य रूप से प्रत्यक्ष करना। तो हम मानते ही हैं फिर सिद्ध पदार्थको चर्चित चर्वण समान साध्य क्यों किया जाता है ? यह दोष ठीक नहीं है, क्योंकि हम मीमांसक लोगोंने सूक्ष्म परमाणु धर्म आदिका सामान्यप्रत्यक्षसे भी जानना इष्ट नहीं किया है । हम तो पुण्य, पाप, परमाणु, आदिके जाननेमें वेदवाक्योंका सहारा लेते हैं । अतः जैनोंके ऊपर सिद्धसाध्यता दोष नहीं लागू होसकता है तथा सामान्यप्रत्यक्षके द्वारा जाननेवालेको साध्य कोटिमें डालनेसे आप जैनोंको दूसरा लाभ यह भी है कि अन्वयां भी बन जावेगा। इंद्रियोंकी नहीं अपेक्षा रखनेवाले मुख्य प्रत्यक्ष से जाननारूप साध्य जहां पाया जाय ऐसा प्रसिद्ध उदाहरण कोई नहीं मिल सकता है और सामान्य प्रत्यक्ष से जानकर afs, पुस्तक आदिका उपदेश होता है । इस उदाहरणमें साध्यका सहितपना मिल जाता है। अतः साध्यसे रहित न होनेके कारण उदाहरणका न सिद्ध होना रूप दोष भी जैनोंके ऊपर लागू नहीं होता है ऐसा कोई दूसरे महाशय मीमांसकों की पक्ष लेकर कह रहे हैं ।
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तेऽपि स्वमतानपेक्षं ब्रुवाणा न प्रतिषिध्यन्ते परानुरोधात्तथाभिधानात् स्वसिद्धान्वानुसारिणां तु सफलमक्षानपेक्षत्वविशेषणमित्युक्तमेव ॥
अब आचार्य कहते हैं कि वे मी अन्य महाशय अपने माने हुए तत्वोंकी नहीं अपेक्षा करके यदि कह रहे हैं तो हम उनका निषेध नहीं करते हैं क्योंकि उनका सिद्धान्त जैनोंके विचारानुसार है, दूसरे जैनोंकी अनुकूलतासे उन्होंने वैसा कहा है । किन्तु योग, वेदाध्ययन आदिसे संस्कारको प्राप्त हुथीं इंद्रियोंके द्वारा ही सूक्ष्म अर्थोका ज्ञान हो जाता है ऐसे अन्यवादियोंके अनुरोध करनेपर ही सूक्ष्म आदिके उपदेशमें इंद्रियोंकी नहीं अपेक्षा रखना रूप विशेषण हमने कहा है । जो मीमांसक परमाणु आदिका प्रत्यक्ष होना ही नहीं मानते हैं और अपने वैदिक सिद्धान्त के अनुसार चलते हैं ।