Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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विरुद्धतानेन प्रत्युक्ता विपक्षे बाधकस भावाच ।
व्यभिचार और विरुद्ध हेतुका भाईचारेका नाता है, अन्तर इतना पड जाता है कि व्यमिचारी हेतु सपक्षमें रहकर विपक्षमें रहता है और विरुद्ध हेतु सपक्षमें न रहकर विपक्षमे रह जाता है। जब इन दोनोंमें समानता है तो अनैकान्तिकता दोष के हटानेवाले उक्त प्रकरणसे मोक्षमार्गस्व-हेतुके विरुद्ध हेत्वभासपनकी शंकाका भी खण्डन हो जाता है क्योंकि हेतुके विपक्षमें रहनेका प्रबल बाधक विद्यमान है । अर्थात् अकेले सम्यग्दर्शन आदिमें या कुज्ञान, असहाचा हेतु सर्वथा नहीं रहता है। विपक्षमें बाधक प्रमाण होनेसे प्रत्येक वस्तुकी सत्ताका दृढ निश्चय होता है ।
न चैवं हेतोरानर्थक्यं ततो विधिमुखेन साध्यस्य सिद्धेरन्यथा गमकत्वविती तदापत्तेः।
यहां कोई कहे कि जिसको विपक्षमै बाधक प्रमाणका निश्चय है उसको साध्यका निश्चय भी अवश्य है ऐसी दशाम हेतु बोलना सर्वथा व्यर्थ है । ग्रन्धकार कहते हैं कि इस प्रकार कल्पना ठीक नहीं है । कारण कि उस हेतुके द्वारा साध्यकी सिद्धि विधिको मुख्य कर की जाती है और विपझम हेतुके न रहनेस साध्यकी सिद्धि निषेधको लेकर हुयी थी अन्यथा यानी यदि ऐसा न होता तो हेतुके गमकानेके जाननेपरही वह साध्यका ज्ञान होगया होता, किन्तु देखते हैं कि अविनाभावी हेतुके जाननेपर भी बादमें व्यासिस्मरण, पक्षवृत्तित्वज्ञान, तथा कहीं कहीं समर्थन, दृष्टांत, और उपनयके अनंतर साध्यका निर्णय होता है ।
ततः सूक्तं लैंगिकं वा प्रमाणमिदं सूत्रमविनामाविलिङ्गात्साध्यस निर्णयादिति ।
उस कारण हमने पहिले बहुत अच्छा कहा था कि "अथवा यह सूत्र तो लिङ्गजन्य अनुमानप्रमाणरूप है क्योंकि इसमें अविनाभाव रखनेवाले मोक्षमार्गत्व हेतुसे रत्नत्रयकी एकतारूप साध्यका निश्चय किया गया है । इस प्रथम सूत्रको आगमप्रमाण और अनुमान-प्रमाणरूप सिद्ध करनेका प्रकरण यहां तक समाप्त हुआ।
प्रमाणत्वाच्च साक्षात्प्रबुद्धाशेषतस्वार्थे प्रक्षीणकल्मषे सिद्धे प्रवृत्तमन्यथा प्रमाणत्वान्यथानुपपत्तेः।
और जब यह सूत्र आगमज्ञान और अनुमानज्ञानरूप है तो प्रमाण होनेके कारण इससे यह भी ज्ञात हो जाता है कि केवलज्ञानके द्वारा सम्पूर्ण पदार्थोंको जान चुके और कौके क्षय कर चुके वीतराग सर्वज्ञके सिद्ध होनेपर उपचारसे वचनरूप किंतु वस्तुतः ज्ञानरूप यह सूत्र आतधारासे प्रतर्ता हुआ चला आरहा है । इसके बिना माने दूसरे प्रकारसे सूत्रमें प्रमाणता सिद्ध नहीं हो सकती है।