Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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सस्वार्थचिन्तामणिः
हैं। अतः वेदके पदोंका अर्थ भी व्युत्पन्न विद्वानको अपने आप ज्ञात हो जावेगा । पदोंके अर्थको जान लेने पर उन पदोंक समुदायरूप वाक्योंका अर्थ जान लेना सरल रीतिसे सम्भव है। जैसे कि हम दो चार काव्य ग्रंथोंको पढकर अभी तक न सुने हुए नवीन काव्योंको भी अपने आप लगा लेते हैं या गणितके नियमों को जान कर नवीन नवीन गणितके प्रश्नोंका स्वतः ही झट उत्तर देदेते हैं, इसी प्रकार व्याकरण आदिकी विशेष व्युत्पत्ति बढानेसे ही वेदके अर्थका निश्चय हो जावेगा । इसके लिये मूलमै किसी अतीन्द्रिय भोंके देखनेवाले सर्वज्ञकी हमें कोई अपेक्षा नहीं है और विद्वानोंके द्वारा जब हम अर्थका निर्णय होना मान रहे हैं, ऐसी दशाम अंघोंकी परम्परा भी नहीं है। जिससे कि अंघोंकी धाराक समान वेदके अर्थका मी निर्णय न हो सके । अब आचार्य कहते हैं कि यह मीमांसकोंका वक्तव्य उचित नहीं है । सुनिये ।
लौकिकवैदिकपदानामेकत्वेऽपि नानार्थत्वावस्थितेरेकार्थपरिहारेण व्याख्यांगमिति वस्यार्थस्य निगमयितुमशक्यत्वात् । मकरणादिभ्यस्तभियम इति चेन्न, तेषामप्यनेकपा प्रवृत्तेः पंचसंधानादिवदेकार्थस्य व्यवस्थानायोगात् ।
लोक आज कल हम लोगोंसे पोले हुए पद और वेदमें लिखे हुए पद यद्यपि एक ही है किंतु उन पदोंके अनेक अर्थ भी व्यवस्थित हो सकते हैं । अतः एक अर्थको छोड कर दूसरे इष्ट अर्थमें ही कारण बताकर उसकी व्याख्या करनी चाहिये, अन्य अर्थमें नहीं । इस प्रकार शब्दोंके उस अर्थका अवधारण (नियम ) करना अशक्य है । मावार्थ-जैसे लोक सैन्धव शब्दके घोडा और नमक दोनों अर्थ हैं. इसी तरह वेदमें भी अनेक अर्थीको धारण करनेवाले पद पाये बाते हैं। जैसे कि अज शब्द का अर्थ नहीं उगनेवाला तीन वर्षका पुराना जो होता है और बकरा भी होता है। ऐसी अवस्थामै मनु आदिक अस्यज्ञ विद्वानोंसे एक ही अर्थका निश्चय करना अशक्य है। यदि आप शहकी अनेक अयोंकी योग्यता होनेपर प्रकरण, बुद्धिचातुर्य, अभिलाषा, आदिसे उस विवाक्षित अर्थका नियम करना मानोगे सो भी ठीक नहीं है। क्योंकि कहीं कहीं प्रकरण आदि भी अनेक प्रकारसे अर्थोके उपयोगी पवर्त रहे हैं, जैसे कि कोई रईस सज्जीमूत होकर माहिर जानेके लिये तैयार बैठा है और ककडी खारहा है। ऐसी दशा " सेंधव लाओ " ऐसा कहने पर सैंधवके घोडा और नाक दोनों अर्थ उस प्रकरणमें प्राप्त हैं। द्विसन्धान काव्यमें एक साथ ही प्रत्येक शद्धके पाण्डव और रामचन्द्र के चरित्र पर घटनेवाले दो दो अर्थ किये गये हैं। ऐसे ही पंचसन्धान, सप्तसंधान, चतुर्विंशतिसन्धान काव्यों में भी एक एक शहके अनेक अमेिं प्रयुक्त किये जानेके प्रकरण हैं। अतः अल्पज्ञ लौकिक विद्वान् प्रकरण आदिके द्वारा अनेक अर्थोको प्रति पादन करने वाले पैदके शद्रों की ठीक ठीक एक ही प्री व्यवस्था नहीं कर सकता है।