Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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सवाचिन्तामणिः
नहीं होता है। अनेक विद्यार्थियों में कोई कोई छात्र अपने अदृष्टके अनुसार ग्रंथके अन्तस्तलपर पहुंचते हैं, समी नहीं। ऐसा कहनेपर हम जैन पंछते हैं कि वेदज्ञानके अभ्यासका कारण वैसा विशिष्ट पुण्य इन मनु आदिको ही क्यों प्राप्त हुआ ! अन्य लोगोंको प्राप्त हो जाय इसमें क्या कोई पाषा है ! यदि आप यहां यह कहोगे कि अपने पूर्वके जन्मों में मनु, जैमिनि, ऋषियोंने ही वैसा वेदके अर्थोका अनुष्ठान किया भा अर्थात् वेदकी बतलायी हुयी यज्ञ, पूजन, होम आदि क्रियाओंका आचरण किया था, अतः उनको ही वैसा पुण्य प्राप्त हुआ । सब जीवोंने वेदज्ञानके उपयोगी उन काँका आचरण नहीं किया था, अतः पूर्वजन्ममें उपार्जित पुण्य न होनेसे वे वेदार्थके ज्ञाता न बन सके । इसपर हम जैन आपके ऊपर दो पक्ष उठाते हैं कि पूर्व जन्मों में उन चुने । खास ) ऋषियोने वेदके अर्थको जानकर वेदविहित मोतियोग, गायन, आणि कौल अनुष्ठान किया था, या विना जाने हुए भी वेदके अर्थका अंटसंट अनुष्ठान किया था ? बताओ । विना जानकर वेदमें विधान किये गये कर्मोंका आचरण करनारूप दूसरा पक्ष तो आपका युक्त नहीं है । क्योंकि वेदके विना जाने चाहे जैसे कर्म करनेवालेको विशिष्ट. पुण्य मिल जाय, तब तो हर एकको सुलमरूपसे वह पुण्य प्राप्त हो जावेगा । यह मर्यादित अर्थको अतिक्रमण करनेवाला अतिप्रसंग दोष हुआ । इस दोषके दूर करनेके लिये आप पहिला पक्ष स्वीकार करेंगे अर्थात् वेदके अर्थको अपने आप जानकर ही मनु, जैमिनि बादि ऋषियोंने वेदम लिखे हुए कमाका इष्ट साधन अनुष्ठान किया था। अतः उनसे उनको पुण्य मिला । आपके इस पक्षमें तो अन्योन्याश्रय दोष आता है । जैसे कि एक गुजराती ताला है, वह विना तालीके भी लग जाता है। किंतु ताली बिना खुलता नहीं है। यदि ताशी मकानके भीतर पड़ी रही और किसी भद्रपुरुषने बाहिरसे ताला लगा दिया, अब ताला कैसे खुले ! यहां अन्योन्याश्रय दोष है कि साला कब खुले ! जन कि ताली मिल जाय और ताली कब मिले जब ताला खुल जाय । ताला खुलना ताली मिलनेके अधीन है और साली मिलना ताला खुलनेके अधीन है। इसी प्रकार यहां परस्पराश्रय दोष है कि जब वेदके अर्थका ज्ञान होजाय तब तो वेदको जानकर यज्ञ आदि काँका अनुष्ठान करके विलक्षण पुण्य पैदा हो और जब विलक्षण पुण्य हो जाय, तब उस विशिष्ट पुण्यसे मनु आदि ही वेदके अर्थका स्वयं ज्ञानाभ्यास करे, अर्थात् वेदके जाननेमें पुण्य विशेषकी आवश्यकता है और पुण्य की प्राप्तिमें वेदके जाननेकी जरूरत है। ऐसे अन्योन्याश्रय दोषवाले कार्य होते नहीं हैं। ____मन्वादेर्वेदाभ्यासोन्यत एवेति चेत् , स कोऽन्यः १ ब्रह्मेति चेत् , तस्य कुतो वेदार्थज्ञानम् ? धर्मविशेषादिति चेत् स एवान्योन्याश्रयः । वेदार्थपरिज्ञानाभावे तत्पूर्वकानुष्ठानजनितधर्मविशेषानुत्पती वेदार्थपरिज्ञानायोगादिति ।