Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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स्वाचिन्तामणिः
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यदि पुनः वेदवाक्यानि सन्निबंधनान्येदानादिकालप्रवृतानि न व्याख्यानांतरापेक्षाणि देशभाषावदिति मतं, तदा कुतो व्याख्याविमतिपत्तयस्तत्र भवेयुः।
यदि आप मीमांसक यह मानोगे कि लौकिक वाक्य भले ही हम लोगोंकी संचातानीसे मिन्न मिन्न अर्थोको प्रतिपादन करे, किन्तु वेदके वाक्य अपने निरुक, कल्प, छन्द, व्याकरण, ज्योतिष, और शिक्षा इन छह अंगों के द्वारा अनादिकालसे अपने नियत अर्थको लेकर ही प्रवृत्त हो रहे हैं | अतः भिन्न भिन्न न्यारे व्याख्यानोंकी वेदवाक्योंको आकांक्षा नहीं है । जैसे कि शब्दोंकी आनुपूर्वी एकसी होनेपर भी संस्कृतभाषामें सन्का अर्थ वर्तमान है। इंगलिश् भाषामें सन् का अर्थ सूर्य है और नागरी माषामै सन् का अर्थ रस्सीको बनानेवाली छाल है। एतावता क्या मिन्न भाषाओं के बोलनेवाले पुरुष अभीष्ट अर्थको नहीं आमते हैं ! किंतु उस शब्दसे अवश्य ज्ञान करलेते हैं । इसी प्रकार देशभाषाके समान वेदके वाक्य भी अपने अर्थको लेकर अनादि कालसे चले आरहे हैं । आचार्य कहते है कि यदि आप ऐसा कहोगे तो उन वेदके अर्थोके व्याख्यानमें क्यों विवाद होरहे है । बतायो । कोई कामधेनु समान हो रहे वेदसे कर्मकाण्ड अर्थ निकालते हैं और चार्वाक " अन्नाद्वै पुरुषः " आदि श्रुतियोंसे अपना मत पुष्ट करते हैं। अद्वैतवादी उन ही मंत्रोंका परब्रह्म अर्थ करते हैं। आप मीमांसक मी नियोग और मावनारूप अर्थमें परस्पर विवाद करते हैं। यदि वेदका अर्थ प्रथमसे निर्णीत होता तो इतने हिंसापोषक और हिंसा निषेधक तथा केवल बड़वाद या केवल आत्मवादरूप विरुद्ध व्याख्यानोंके द्वारा क्यों झगडे देखे जाते है।
प्रतिपत्तुर्माद्यादिति चेत् केयं तदर्थसंमतिपत्तिरमन्दस प्रतिपत्तुर्जातुचिदसम्भवात् ।
यदि आप कहोगे कि वेदके अर्थोंको जानने वाले पुरुषोंका ज्ञान मंद है जिससे कि वे नाना विवाद खडे करते हैं। प्रतिभाशाली पुरुष झगडोंको छोडकर वेदका एक ही अर्थ करते हैं, ऐसा कहने पर हम जैन आप मीमांसकोंसे पूछते हैं कि वेदके वास्तविक अर्थका पूर्ण ज्ञानशाली, मंदबुद्धिरहित, सर्वज्ञको तो आपने कमी माना नहीं है। असम्भव कहा है। जब कोई सर्वज्ञ ही नहीं है सो अनादि कालसे अब तकके सम्पूर्ण मनुष्य मंदबुद्धिवाले ही समझे जावेगे। ऐसी दशामें भला उस वेदके अर्थका यह निर्णय कहां कैसे हो सकता है ! अर्थात् कहीं नहीं। . सातिशयप्रज्ञो मन्वादिस्तत्प्रतिपत्ता संप्रतिपत्तिहेतुरस्त्येवेति चेत्, कुतस्तस्य वाया प्रचाविषयः ।