Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वाचिन्तामणि
करके समीचीन परीक्षा करना ही गोत्र आदिके उपदेश में पूर्वपुरुषोंका विचार कहा जाता है वही हम कहते हैं कि कोई मुनिमहाराज अपने अतीन्द्रिय प्रत्यक्षसे ही इस प्रकार निर्णय कर लेते हैं कि यह सोमवंश है । यह नाथवंश है । यह काश्यप गोत्र है । अमुक पुरुष क्षत्रिय वर्णका है । यह वैश्य वर्णका है इत्यादि । जाति और वंश पहिरिन्द्रियों के विषय नहीं हैं क्योंकि उत्तमवंशोंके व्यवहारका निमित्त कारण उहाँत्रकर्मका उदय है और आत्मामै फल देनेवाले उस उच्च गोत्रकर्म का प्रत्यक्ष करना अतींद्रिय प्रत्यझसे ही हो सकता है, अतः प्रत्यक्षदर्शी तो गोत्र, जाति, वर्णका साक्षात्प्रत्यक्ष कर लेते हैं। और कोई कोई तो जो प्रत्यक्ष नहीं कर सकते हैं, वे उन गोत्र, जाति, वर्गों के विनाभावी विशेष विशेष (खास खास ) झापाके देखनेसे गोत्र आदिका अनुमान कर लेते हैं। कारण कि मिन्न भिन्न जाति, या काश्यप, खण्डेलवाल, अग्रवाल आदि वंशीमें कोई कोई ऐसा वैयक्तिक कार्य होसा है कि विचारवाले पुरुष उन कृत्योंसे उनकी जाति, व का शीघ्र बोध कर लेते हैं । भावार्थ-भिन्न भिन्न कुलोंमें कुछ न कुछ विलक्षणपना देखने में आता है । गहरा विचार करनेवालोंसे यह बात छिपी हुई नहीं है । कोई तुच्छ पुरुष अच्छा पदस्थ या विशिष्ट धन मिल जानेपर भी अपनी तुच्छता नहीं छोडता है। और उदात प्रकृतिका पुरुष दैवयोगसे निर्धन और छोटी वृत्ति भी आजाय तो मी अपने पडम्पनको स्थित, कायम, रखता है। ऐसे ही अग्रवाल या पद्मावतीपुरवाल आदि उत्तम बातिओंके समुदित मनुष्योंमें भी कुछ कुछ सूक्ष्म कार्योंमें विशेषता है । जिससे कि आत्मामें सन्तानऋमसे आचरणरूप रहनेवाले गोत्र, जाति, वर्णीका अनुमान हो सकता है । घोडे और कुत्तों में इस सजाति सम्बन्ध और जातिसंस्कारसे अनेक गुणदोष देखे गये हैं । अतः निर्णीत हुआ कि बहिरिन्द्रियजन्य ज्ञानवालोंको विशिष्ट कार्योंसे जाति गोत्र और वर्णोका अनुमान हो जाता है । तया अनेक कार्योंमें हमे आगमकी शरण लेनी पड़ती है । यह ही तेरा पिता है । इसमें सिवाय मातृवाश्यके और क्या प्रमाण हो सकता है । उस मातृवाक्यको भिति मानकर आगे भी पिता पुत्र व्यवहारका सम्प्रदाय-सिलसिला चलता है, ऐसे ही अन्य कोई कोई जीव सच्चे शास्त्रोंसे जाति, गोत्र आदिको जान लेते और योंही उनके उपदेशसे दूसरे लोगोंके ज्ञान करनेकी धारा चलती है । इस प्रकार सच्चे वक्ताओंका आम्नाय कभी टूटती नहीं है । अन्यथा यानी यदि गोत्र आदिके उपदेशकी धारा टूट गयी होती तो आजतक सर्वदा उनका उपदेश नहीं बन सकता था । जब कि उक्त प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम प्रमाण उस उपदेशके साधक है । बाधक नहीं हैं तो फिर सम्प्रदायके न टूटने प्रत्यक्ष आदिकसे कोई विरोध नहीं है । उसी प्रकार मोक्षमार्गके उपदेशमै भी यह पूर्वोक्त संपूर्ण कथन समानरूपसे घट जाता है । अर्थात् मिन्न भिन्न जीव मोक्षमार्गको भी तीनों प्रमाणोंसे जान सकते हैं ।