Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
कहा है। जो उपदेशक विना इच्छा रखते हुए पुरुषों के निमित्त प्रतिपादन कर रहा है वह आपेमें नहीं है, तथा देवदत्तकी इच्छा होनेपर जिनदत्तको उपदेश देने के समान कपिलमतानुयायियों के मतमें प्रकृतिकी इच्छा होनेपर आत्माके लिये उपदेश देनेका प्रयत्न करना मी आपे ( होश ) में रहनेवाले विचारक मनुष्यका कार्य नहीं है।
परस्य प्रसिपिरसामन्तरेणोपदेशप्रवृत्तौ तत्प्रश्नानुरूपप्रतिवचनविरोधश्च ।
जो वक्ता दूसरे सुननेवालेकी इच्छाके विना उपदेश देवेगा । वह श्रोताके प्रभोंके अनुकूल वर्चन बोलेगा यह बात विरुद्ध है । अर्थात् वक्ताका बोलना तभी सफल है जबकि वह श्रोताके प्रश्नों के अनुसार भाषण करै । यदि श्रोता विना इच्छाके दूंठ सा बैठा हुआ है तो ऐसी दशामें उपदेश देनेका ही विरोध है । अथवा बया पक्षीका वन्दरके प्रति उपदेश देनेके समान बह दुष्फलका वीज होगा यह अर्थ भी चब्दकरके समुच्चित कर लिया जाता है।
योऽपि चाशवान स्वहितं प्रतिपित्सते तस्य हि तत्प्रतिपित्सा करणीया ।
यहाँ कोई कहे कि सत्त्वज्ञानके जाननेकी इच्छा या मोक्षमार्गके समझनेकी अभिलाषा जीवको तभी हो सकती है जबकि उसको हेयोपादेय समझनेकी कुछ योग्यता होवे । जब कि यह निपट ग़ार मूर्ख पशुके समान है जो अज्ञान होनेसे अपना हित ही नहीं समझना चाहता है ऐसे पुरुषको उसकी इच्छाके विना भी उपदेश दे देना दयावानोंका कार्य है। इस पर आचार्योका कहना है कि जो पुरुष मूर्खतावश अपने हितको नहीं समझता है या समझना नहीं चाहता है उसको प्रथम तत्त्वज्ञान जाननेकी इच्छा पैदा करानी चाहिये । हितमार्गका उपदेश पीछे दिया जायेगा।
न च कश्चिदात्मनः प्रतिकूल घुमुत्सते मिथ्याज्ञानादि, स्वप्रतिकूले अनुकूलाभिमानादनुकूलमहं प्रतिपित्से सर्वदेनि प्रत्ययात् । तत्र नेदं भवतोऽनुकूलं किंस्विदमित्यनुकूलं प्रतिपित्सोत्पाद्यते । समुत्पन्नानुकूलप्रतिपित्सस्तदुपदेशयोग्यतामात्मसात् कुरुते । ततः श्रेयोमार्गप्रतिपित्सावानेवाधिकृतस्तत्प्रतिपादने नान्य इति सूक्तम् ।।
कोई भी जीव अपने लिये अनिष्ट पडनेवाले पदार्थको जानना नहीं चाहता है। यद्यपि कभी कभी तीव्र क्रोधके वश होकर जीब अपना घात कर लेता है, विषको खा लेता है, कुएँ में गिर पड़ता है इत्यादि. किंतु इन कार्योंको भी अपने लिये इष्ट समझता हुआ उत्साहसहित अनुकूल ही मान रहा है । मिथ्याज्ञानके वश उसको सदा यही विश्वास रहता है कि यह विषभक्षण ही मेरा इष्टसाधन करनेवाला है । मैं अपने लिये ठीक ही कार्य कर रहा हूँ। यों मिथ्याज्ञानसे भी अपने प्रतिकूल कर्तव्य मे अनुकूल पडनेका अभिमान हो जानेसे मैं सदा अपने अनुकूलको समझ