Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थांचन्तामणिः
क्रीडा और कामकी नाना कुचेष्टाओंका राग बढानेवाला वर्णन किया है जो कि इहलोक और परलोकका धर्मनाशक होते हुए व्यवहारसे भी अतीव निध है। खरपटने हिंसा करनेका उपदेश दिया है। तभी तो ऐसी पुस्तकोंका प्रचार न्यायी राजाने रोक दिया है। उस कारणसे सूत्रका सूत्रपना तत्त्वार्थसूत्रमें ही घटता है ।
मह तत्त्वार्थसूत्र अपने पद, वाक्यों, की रचनासे यद्यपि उमास्वामी महाराजने बनाया है किंतु इसके वाच्य-प्रमेयका अर्थ सर्वज्ञ गुरुकी ज्ञानधारासे ही चला आरहा है, अतः इस सूत्र का वाच्यार्थ सर्वज्ञ और वीतराग वक्ताके द्वारा ही बनाया गया है कारण कि अन्यथा इसमें सूत्रपनाही नहीं बन सकता है । अतः यह ग्रंथ सूत्र अवश्य है ।
गणाधिपप्रत्येकबुद्धश्श्रुतकवल्यभिन्नदशपूर्वधरसूत्रेण स्वयं सम्मतेन व्यभिचार इति चेन तस्याप्यर्थतः सर्वज्ञवीतरागप्रणेतकल्वसिद्धरई द्राषितार्थ गणधरदेवैथितमिति वचनात् । एतेन गृध्रपिच्छाचार्यपर्यन्तमुनिसत्रेण व्यभिचारिता निरस्ता । ___ यहां पुनः शंका है कि चार ज्ञानके धारी तथा तीर्थंकर भगवान्के प्रधान शिष्य गमधरदेव और इस जन्म, तत्त्वार्थदेशनाके विना जो स्वयं ही तत्त्वज्ञानी होकर अनेक सिद्धांत शास्त्रों के रहस्यफो जाननेवाले प्रत्येकबुद्ध मुनि तथा संपूर्ण द्वादशाके जाननेवाले श्रुतकेवली महाराज एवं ग्यारह अंग और विनवाधाओंको सहकर पारंगत हुये पूर्ण दशपूर्वके धारी सम्यग्ज्ञानी ऋषि भी सूत्रोंको बनाते हैं, आप जैनोंने उन सूत्रोंको सच्चा सूत्रपना भी समीचीन माना है किंतु वे सूत्र सर्वज्ञ तीर्थकरके तो बनाये हुये नहीं है, अतः जो जो सूत्र होते हैं, वे वे सर्वज्ञ वीतरागके बनाये हुए होते हैं, इस व्याप्तिम व्यभिचार हुआ । श्राचार्य कहते हैं, कि ऐसी शंका तो ठीक नहीं है, कारण कि गणधरदेव आदिके द्वारा बनाये हुए उन ग्रंथोंका अर्थ भी सर्वज्ञ वीतराग देवके द्वारा ही बनाया गया प्रतिपादन किया जाचुका सिद्ध है, पूर्वाचायोंने ऐसा ही कहा है कि 'अर्हन्त देवके द्वारा भाषितअोंको ही गणधरदेवोंने द्वादशात ग्रंथरूपसे गूंथा है। जैसा कि कोई मालाकार पुष्पोंकी माला बनाता है । उसमें पुष्पोंकी इधर उधर योजना करना ही मालाकारका प्रयत्नसाध्य कार्य है, पुष्पोंका निर्माण करना मालाकारके हाथका कार्य महीं है । अतः अर्थकी अपेक्षासे भावसूत्रोंका बनाना सर्वज्ञ अर्हन्तका ही कार्य है । भले ही शब्दयोजना गणधर आदिकोंने की हो । इस पूर्वोक्त कथनसे दूसरे गृध्रपिच्छ नामको धारण करनेवाले मुनि उमास्वामी आचार्यपर्यंत मुनियोंके सूत्रोंसे भी व्यभिचार दोष दूर होगया अर्थात् अर्थरूपसे तत्त्वार्थसूत्र ग्रंथ गुरुपरिपाटीसे चला आरहा है किंतु ग्रंथरूपसे उमास्वामी महाराजने रच दिया है। और इसके पूर्वके ग्रंथ भी सर्वज्ञधारासे बनाये गये समझने चाहिये।
प्रकृतसूत्रे सूत्रत्वमसिद्धमिति चेन्न सुनिश्चितासम्भवद्वापकत्वेन तथास्य सूत्रत्वप्रसिद्धेः