Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
इसका भी मूलकारण वेदही मानना चाहिये । ऐसी आशंका होनेपर विद्यानन्द आचार्य उत्तर देते है:-- नैकान्ताकृत्रिमाम्नायमूलत्वेऽस्य प्रमाणता, तव्याख्यातुरसावश्ये रागित्वे विप्रलम्भनात् ॥४॥
आपके द्वारा एकान्तरूपसे अनादिनिधन माने गये ऋग्वेद आदिको मूल मानकर बताये गये अथातो" आदि इस सूत्रको प्रमाणता नहीं है, क्योंकि उस वेदका व्याख्यान करनेवाला असर्वज्ञ और रागी ही माना जावेगा । मीमांसक लोग सर्वज्ञको तो मानते नहीं है, अतः रागी द्वेषी अज्ञानी वक्ताओंके द्वारा वेदके अर्थका भिन्न भिन्न विपरीतप्रकारसे भी प्रतिपादन और प्रवर्तन कराया जावेगा, तथा च अप्रमाणपना आवेगा, श्रोताजनोंको धोका होजायगा ।
सम्भवनपिचकृत्रिमानायो म स्वयं स्वार्थ प्रकाशयितुमीशस्तदर्थे विषतिपस्यभावानुषंगादिति तयाख्यातानुमन्तव्यः। स च यदि सर्वत्रो वीतरागश्च स्याचदानायस्य तत्परतन्त्रतया प्रवृत्तेः किमकृत्रिमत्वमकारणं पोष्यते, तयाख्यातुरसर्वज्ञत्वे रागित्वे वाश्रीयमाणे तन्मूलस्य सूत्रस्य नैव प्रमाणता युक्ता, तस्य विप्रलम्भनात् ।
यद्यपि वर्णपदवाश्यात्मक वेद कैसे भी नित्य सिद्ध नहीं है, फिर भी अस्तुतोषन्यायसे वेदको सम्भवतः अकृत्रिम भी मान लिया जाय तो भी वह बेद अपने आप तो अपने अर्थका प्रकाशन करने में समर्थ नहीं है । यदि उच्चारण मात्रसे ही वेद अपने निणीत अर्थको प्रतिपादन करा देता तो श्रोताओंको उसके भावना, विधि, नियोग आदि नाना अर्थों में विवाद पैदा न होता किंतु अनेक मतावलम्बी वेदसे ढंच तानकर अपने मन चाहे अर्थों को निकाल रहे हैं । अद्वैतवादी वेदके लिङ् लकारका अर्थ विधिरूप सत्ता करते हैं, तथा मीमांसको भट्ट उसका भावना अर्थ मानते हैं, प्रभाकर नियोग अर्थ मानते हैं। इसी प्रकार सर्वज्ञको कहनेवाली " यः सर्वज्ञः स सर्ववित् ।। आदि श्रुतियोंसे नैयायिक लोग ईश्वरको सर्वज्ञताका अर्थ निकालते हैं और मीमांसकलोग उसको कर्मकाण्डकी स्तुति करनेवाला अर्थवाद वाक्य मानते हैं। यदि वैदिक शब्द स्वयंही अपने अर्थको कह दिया करते तो यह विवाद क्यों पड़ता है । अतः आपको चेदके शब्दोंका व्याख्यान करनेवाला कोई पुरुष अवश्य मानना पडेगा, यदि वह व्याख्याता सर्व पदार्थों को प्रत्यक्ष करनेवाला और रागद्वेषरहित है, तब तो वेद उसके अधीन होकर ही प्रवृत्त होगा, ऐसी दशा में विनाकारण वेदका किसीसे न बनाया जानापन क्यों पुष्ट किया जाता है ! उसे सर्वक्षसे बताया हुआ मानना ही अच्छा है । मीमांसकोंका विचार है कि प्रायः वक्ता रागी, द्वेषी, अज्ञानी, होते हैं । सराम वीतरागके निर्णयके लिये हमारे पास कोई कसौटी नहीं है, अतः सब ज्ञानोंके आदि कारण वेदको अनादि, अकृत्रिम माना गया है, यह मीमांसकोंका विचार ठीक नहीं है क्योंकि उनको वेदका व्याख्यान करनेवाला तो सर्वज्ञ माननाही पड़ेगा उसकी अपेक्षा तो सर्वज्ञके द्वारा प्रतिपादित वेदको कृत्रिम माननाही अच्छा है ।