Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
मीमांसकोंने शब्दका व्यापकपना सिद्ध करनेके लिये नित्यद्रव्य होकर अमूर्तपना हेतु दिया था, उसमेसे शब्दरूपी पक्षमें सर्वथा नित्यत्व और व्यत्यकी असिद्धि बतला दी, अब अमूर्तत्वको भी असिद्ध करते हैं। शब्द मूर्तिरहित नहीं है क्योंकि वह स्वर्श, रस, गंध, वर्ण स्वरूप मूर्तिवाले पुद्गलद्रव्यको पर्याय है, अतः मूर्त है । शब्दको पुद्गलको पर्यायपना कोई असिद्ध न करे, इसलिये अनुमान करते हैं कि "शब्द मूर्तिमान् द्रव्यका ही परिणाम है (प्रतिज्ञा) क्योंकि सामान्यके विशेषोंसे सहित होता सन्ता बाह्य इन्द्रियोंका विषय हैं, ( हेतु ) जो जो व्यापक सामान्य मानी गमी सत्ताके व्याप्य ( अल्पदेशमें रहने वाले,) द्रव्यत्व, गुणत्व, शब्दत्व आदि विशेषजातियोंसे, सहित होकर बहिरंग इंद्रियोंसे जाने जाते है, वे अवश्य ही मूर्तिमान् पुद्गलद्रव्यकी पर्याय होते हैं, जैसे कि घाम ( धूप, ) अन्धकार आदि विकार पुद्गल व्यके हैं " ( अन्वयदृष्टान्त )
इस हेतुमे कोई नैयायिक व्यभिचार दोष उठाता है कि "येनेन्द्रियेण यद्गृह्यते तेनेन्द्रियेण तहतसामान्यमपि गृह्यते " जिस इंद्रियसे जो जाना जाता है, उसमें रहनेवाली जाति भी उसी इन्द्रियसे जानी जाती है, जैसे घटको चक्षुः इन्द्रियसे जाना तो घटमें रहनेवाली घटत्वजाति भी आंखोंसे ही जानी जावेगी, इस नियमके अनुसार बाह्य इंद्रियोंसे घटत्व, रूपत्व, रसत्व आदि जातियां भी प्रतीत होती हैं ।किंतु उनमें पुद्गलद्रव्यकी पर्यायपनारूप साध्य नहीं है । अंथकार कहते हैं कि इस प्रकारका व्यभिचार दोष हमारे हेतुमे नहीं होसकता है क्योंकि हमने हेतुका विशेषण अपरसामान्यसे सहितपना दे रक्खा है, मीमांसकों ओर नैयायिकोंने घटव आदि जातियों में रहनेवाली पुनः दूसरी कोई जाति नहीं मानी है " जाती जात्यन्तरानङ्गीकारात् । अतः पूर्ण हेतुके न घटनेसे साध्यके न रहनेपर व्यभिचार दोष नहीं है । दूसरी बात यह है कि हेतु अपरसामान्योंसे सहितपना रूप विशेषण तो दूसरे मीमांसक और नैयायिकके मतोंकी अपेक्षासे दिया है, क्योंकि ये लोग जातिमें पुनः जात्यन्तर नहीं मानते हैं, और जातिरूप सामान्यको पुदलका विकार भी नहीं मानते हैं किंतु हमारे मत अनुसार जैनसिद्धांतमें घटॉमें रहनेवाले मदृशपरिणामोंको ही घटत्व आदि सामान्य माना है । अनेक समान व्यक्तियों में रहने वाले सदृशपरिणामरूप तिर्यक्सामान्यको और अनेक कालमै एक व्यक्तिमें रहनेवाले घट आदिकी पूर्वापर काल व्यापक सदृशतारूप उर्ध्वतासामान्यको भी पुगलकी ही पर्याय माना है, हम लोग नित्य और एक होकर अनेक व्यक्तियों में समवाय सम्बन्धसे रहनेवाले सामान्यको नहीं मानते हैं, अतः स्याद्वादियोंके मतसे घटत्वसामान्यों मी हेतु रह गया और साध्य भी रह गया, इस कारण व्यभिचार दोषकी सम्भावना नहीं है। सामान्य मी द्रव्यका पर्याय स्वरूप व्यवस्थित है।
अब यहां कोई शब्दको पौगलिक सिद्ध करनेवाले हेतमे पुनः व्यभिचार देता है कि गमन, भ्रमण, आकुञ्चन आदि कर्म भी सत्तासमान्यकी व्याप्य हो रही कर्मत्वजातिसे सहित है, और