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प्रधानाचार्य श्री सोहनलाल जी में ऐसी भारी महामारी फैली कि उसके भय से लोग भाग २ कर अन्य स्थानों में चले गए। नगर को खाली होता हुआ देख कर शाह मथुरादास जी भी स्यालकोट से चलकर उसके समीप सम्बडियाल नासक नगर में आगए । यह स्थान उनको इतना अधिक पसन्द आया कि बाद में स्यालकोट में महामारी का जोर कम हो जाने पर भी उन्होंने वहां न जाकर सम्बडियाल को ही अपना स्थायी निवासस्थान बना लिया । धन वैभव की आपके पास कोई कमी न थां, किन्तु इतने बड़े धनी होने पर भी अभिमान उनको छू तक न गया था। वह स्वभाव से अत्यन्त नम्र एवं विनयी थे। सभी को श्रादर सत्कार देना तथा तन, मन और धन से दूसरों की सहायग के लिये कटि. बद्ध रहना आप अपना प्रधान कर्तव्य मानते थे। इस सम्बन्ध में जनता भी आपत्ति के समय आप को ही याद करती थी। जहां किसी पर लेशमात्र भी आपत्ति श्राती तो जनता शाह मथुरादासजी को उसके मुकाबले के लिये खड़ा कर दिया करती थी। विद्वानों को आप बहुत आदर करते थे। नगर के सभी विद्वानों की आप सहायता किया करते थे। इसके अतिरिक्त यदि कभी कोई विदेशी अथवा अन्य स्थान का विद्वान् सम्बडियोल आ जाता तो आप उसके श्रादर सत्कार में किसी प्रकार भी त्रुटि नहीं होने देते थे। किसी के यहां किसी भी प्रकार का क्लेश कष्ट अथवा झगड़ा होता तो श्राप उसको अपने तीव्र बुद्धि बल द्वारा इस प्रकार दूर कर देते थे कि वादी लथा प्रतिवादी दोनों ही उनके न्याय की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा करते थे। आपकी राजदरवार में भी विशेष प्रतिष्ठा थी। राज्याधिकारी सार्वजनिक महत्ता के कार्यों में आपकी सम्मति अवश्य लिया करते थे। इससे साधारण जनता को अधिक से अधिक लाभ पहुँचता था। अपने इन्हीं गुणों के कारण आपने सबके हृदय