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प्रधानाचार्य श्री सोहनलाल जी वीतराग देव, निग्रन्थ मुनि तथा धर्म मे सदेह रखना संशय है। सत्यदेव वीतराग अगवान् को अदेव समझना विपर्यय है। जिस प्रकार उल्लू को सूर्य अन्धकारपूर्ण दिखलाई देता है, उसी प्रकार विपर्यय से जीव सच्चे देव को प्रदेव समझता है। इसी विपर्यय के प्रभाव से यह अज्ञानी जीव गुणयुक्त गुरु से अगुरु की बुद्धि उसी प्रकार रखता है, जिस प्रकार पुष्प माला को सर्प मान लिया जावे। इस विपर्यय के कारण जीव सत्य धर्म को उसी प्रकार अधर्म मान लेता है, जिस प्रकार कमल रोग वाले को श्वेत शंख पीला दिखलाई देता है। किसी बात को जानने की परवाह न करना अनध्यवसाय है। जैसे पैर में कुछ चुस जाने पर भी यह जानने का यत्न न करना कि पैर में कंकर चुभी है अथवा कांटा अथवा सुई। मिथ्यात्व पांच प्रकार का है
आभिग्रहिक, अनाभिग्रहिक, अभिनिवेशिक, सांशयिक तथा अनामोगिक।
१-आभिग्रहिक मिथ्यात्व मिथ्या शास्त्रों के पढ़ने से जो कुदेव, कुगुरु तथा कुधर्म में बढ़ श्रद्धा हो जाती है उसे एकान्तवाद से ठीक मानना तथा दूसरों को गलत मानना। इस प्रकार के व्यक्ति हिंसा, विषय भोग तथा इन्द्रियों की तृप्ति को धर्म माना करते है।
२-अनाभिग्रहिक मिथ्यात्व
जो सब धर्मो को एकसा मानता हुआ उनमे कोई भेद भाव न रक्खे, इस प्रकार का व्यक्ति किसी भी एक दर्शन को स्वीकार न करने के कारण मूर्ख बालकों के समान धर्म रूपी अमृत तथा अधर्म रूपी विष को एक जैसा मानता है।