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गणि उदयचन्द जी का सम्पर्क
२५७ तो अपने आप को दिन और रात साधना की अग्नि में तपाना
और आत्मा के वास्तविक रूप को निखारना होगा। क्या तुम शिर के बालों को उखाड़ने की बात जानते हो ? यह पता है कि उसमें कितना कष्ट होता है ? क्या तुम उस कष्ट को प्रसन्न भाव से सहन करने को तयार हो ?"
मुनि श्री सोहनलाल जी के यह शब्द सुन कर नौबतराय ने उनको उत्तर दिया
“गुरुदेव ! मैं जैन साधुओं की जीवनचर्या से पूर्णतया परिचित हूं। मैं किसी और कारण से साधु नहीं बनना चाहता। मैं तो केवल आत्म कल्याण के लिये ही साधु बनना चाहता हूं। अतएव इस मार्ग मे आने पर कितने ही कष्ट क्यों न हों, मुझ पर कितनी भी आपत्तियां क्यों न पड़ें मैं उन सब को सहन्द कर आत्म कल्याण के लक्ष्य पर पहुंचने का दृढ़ संकल्प कर लिया है। आजीवन ब्रह्मचारी बने रहने का नियम मैं पहिले ही ग्रहण कर चुका हूं।"
इस पर मुनि सोहनलाल जी प्रसन्न होते हुए बोले
पूज्य श्री-"अच्छा! तुमने आजन्म ब्रह्मचर्य का नियम लिया हुआ है ?"
नौबतराय-जी हां, गुरुदेव ! पूज्य श्री-तब तो तुम्हारा मार्ग प्रशस्त है। नौबतराय-तो फिर कृपा कीजिये, गुरुदेव! पूज्य श्री-क्या घर से माता पिता की आज्ञा मिल चुकी है ?
नौबत-नहीं, गुरुदेव ! आज्ञा मिलने की सम्भावना भी नहीं है।