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युवराज पद नाणेण विणा न हुति चरणगुणा
उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन २८ गाथा ३० ज्ञान के बिना जीवन में चारित्र के गुणों की प्राप्ति नहीं हो सकती।
पूज्य श्री मोतीराम जी महाराज इस समय पर्याप्त वृद्ध हो चुके थे और वह यह सोच रहे थे कि संघ की व्यवस्था के कार्य को किस प्रकार चलाया जाये। कुछ वृद्ध मुनियों का यह भी कहना था कि अपने कार्य में सहायता मुनि सोहनलाल जी से ले
और उसके लिये उनको युवराज पद दे दें। यह सारे विचार संघ में चल रहे थे, किन्तु उनको अन्तिम रूप देने में अनेक कठिनाइयां थी।
मुनि श्री सोहनलाल जी महाराज अपने संवत् १६४७ के मालेरकोटला के चातुर्मास के बाद वहां से विहार करके नाभा, पटियाला, राजपुरा, अम्बाला, उगाला, मलाणा तथा संडोरा में धर्म प्रचार करते हुए वहां से लौट कर डेरावसी की ओर चले। फिर आपने खरड़, कूराली, रोपड़ और नालागढ़ में प्रचार करके रोपड़ दुबारा पाए वहां से श्राप बलाचौर, जैजों होशियारपुर, जालंधर तथा जेडियाला की जनता को धर्म संदेश देते हुए अमृतसर पधारे।