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प्रधानाचार्य श्री सोहनलाल जी शुक्लचन्द्र-ज़रा मैं भी सुनू कि किस बात का खयाल हो पाया।
माता-अरे वेटा ! बड़े बूढ़ों के मन में तो न जाने कितने विचार तूफान बन कर आया करते हैं। तुम उन सब को सुन कर क्या करोगे?
शुक्लचन्द्र-नही माता ! यह वात तो आपको अवश्य वतलानी पड़ेगी। यदि आप मुझे वास्तव मे ब्रह्मदत्त के जैसा समझती हैं तो आपको मुझसे अपने दुख को कहने मे संकोच नहीं करना चाहिये।
माता-अच्छा बेटा! तेरा अत्यधिक आग्रह है तो सुन । यह जो तेरी सगाई हुड़ियाना की लड़की के साथ हुई है उस लड़की की सगाई पहले ब्रह्मदत्त के साथ हुई थी। बाद मे जव ब्रह्मदत्त के पिता का स्वर्गवास हो गया तो लड़की वालों ने हमारी असहायता का ध्यान करके हमारे यहां से सगाई छुड़ा कर तुम्हारे साथ की।
शुक्लचन्द्र-अच्छा, यह बात है ! तो माता, मेरी यह प्रतिज्ञा है कि मैं उस लड़की के साथ कभी भी विवाह नहीं करूंगा।
माता-नहीं वेटा! यह कहानी तुमको सुनाने का मेरा यह अभिप्राय कभी नहीं था कि तुम इतनी कठोर प्रतिज्ञा कर लो।
शुक्ल चन्द्र---किन्तु माता ! वह मांग मेरे मित्र ब्रह्मदत्त की है। मै उसको किस प्रकार स्वीकार कर सकता हूं ?
माता ने आपको अपनी प्रतिज्ञा छोड़ने को बहुत कुछ कहा, किन्तु आपने अपने मन मे अपनी इस भीषण प्रतिज्ञा पर सुमेरु पर्वत के समान अचल बने रहने का निश्चय कर लिया।