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प्रधानाचार्य श्री सोहनलाल जी
इच्छा थी कि आप उनकी सेवा करें। किन्तु मुनि रतनचन्द जी की आयु अधिक शेष नहीं थी। उन्होंने ६५ दिन के अंतिम उपवास के दिनों मे एक पत्र लिखकर पूज्य श्री के पास रखकर उनसे निवेदन किया कि
"इस पत्र को मेरे उपवास के बाद खोला जावे।" उस पत्र में आपने लिखा था कि मेरा ६५ दिन के उपवास के अंतिम दिन प्राणांत हो जावेगा। अस्तु उनका स्वर्गवास उनके बतलाए हुए ठीक समय पर हो गया।
मुनि रतनचंद जी का स्वर्गवास हो जाने पर आपको दूसरे साधु अपनी सेवा मे लेने को फुसलाने लगे। एक दिन आपने अवमर देखकर पूज्य श्री से निवेदन किया।
शुक्लचन्द्र-गुरुदेव ! कई साधु मुझे इस बात की प्रेरणा करते हैं कि मैं उनकी सेवा में चला जाऊं। आप कृपा कर मुझे मेरे कर्तव्य कर्म का निर्देश करे ।
जिस समय मुनि शुक्लचन्द्र जी ने यह शब्द पूज्य श्री की सेवा मे निवेदन किये तो युवाचार्य श्री काशीराम जी महाराज भी वहीं उपस्थित थे।
। पूज्य श्री ने आपको उत्तर दिया ___"यदि तुमसे भविष्य में कोई मुनि ऐसी बातचीत करे तो अपने को युवाचार्य श्री काशीराम जी महाराज का शिष्य बतला दिया करना। अस्तु उस समय से आप अधिकतर युवाचार्य जी के माथ ही विहार करने लगे और संघ मे भी युवाचार्य जी के ही शिप्य कहलाए।
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