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प्रधानाचार्य श्री सोहनलाल जी ___ 'कानचन्द बैरागी को दीक्षा देने वाले से मेरा कोई सम्बन्ध नहीं होगा।" __ इस पर पूज्य महाराज पण्डित मुनि शुक्लचन्द जी से वोले
"आपने विघ्न देख लिया ? फिर भी यदि तुम उसे दीक्षा देनी चाहो तो दे दो। मैं किसी प्रकार भी काशीराम जी को राजी कर लूगा । भले ही कोई व्यक्ति दीक्षा लेकर छोड़ दे, किन्तु जितने समय वह दीक्षित रहेगा उतने समय तो उसका श्राम विकास होगा। क्योंकि जीव का क्षयोपशम कभी कभी ही जागता है। उस समय ग्रहण किया हुआ सम्यक्त्व तथा चारित्र उनको अगले जन्म में भी लाभ देता है। किन्तु युवाचार्य जी के तार के कारण पण्डित मुनि शुक्लचन्द जी ने उसको दीक्षा देना स्वीकार न किया।
तपस्वी मुनि रत्नचन्द जी ने आठ दिन का उपवास करके अठाई की हुई थी। उन्हीं दिनों युवाचार्य श्री काशीरामजी महाराज को लाहौर जाना था । अकेले मुनि रत्नचन्द जी उस मार्ग से पूर्णतया परिचित थे। वह सेवा भाव से उनके साथ जाना चाहते थे। युवाचार्य जी बोले
"रस्नचन्द जी ! तुम्हारा जाना उचित नहीं है। अठाई के व्रत में तुम्हारा तेला है। तुम्हारे शरीर में अठाई के कारण निर्वलता रहेगी।" 'इस पर रत्नचन्द जी बोले ।
"नहीं, मुझे इसमें कुछ भी कष्ट नहीं होगा। मैं आपको लाहौर पहुंचा कर यहां वापिस पाकर पारणा कर लूगा।"