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प्रधानाचार्य श्री मोहनलाल जी आप संवेगी बने। किन्तु क्या सवेगी बन कर भी याप अपने चारित्र की त्रुटि को दूर न करेंगे ? बान तो आत्मा का गुण है तो फिर इसकी क्या गारंटी है कि आप जो कहते हैं वह सत्य है ? आपके वचन को लत्य अापके स्थानकवासी वेप मे ही माना जा सकता था। अब तो वह सच हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता । इस लिये आप को अपने अन्दर की चारित्र की त्रुटि को मान कर उसे ठीक कर लेना चाहिये।"
अारमा राम जी-पहिले आप अपने मवसे बड़े पुत्र को संस्कृत पढ़ा कर न्याय पढ़ायो । फिर वह लडका श्राप से जो कुछ करने को कहे वही करो। सत्य मार्ग को इसी प्रकार जाना जा सकता है। यही आपकी बात का उत्तर है।
श्रावक-तब तो सस्कृत तथा न्याय के विद्वान् जो कुछ कहे उसी को धर्म मानना चाहिये । पुत्र को पढ़ा कर उसका कहा करने की अपेक्षा तो यही अच्छा रहेगा कि काशी जी जाकर वहां के विद्वानों से शंका समाधान करे और जो कुछ वह कहे वही आंख मूद कर मान लिया जावे । यह वात आप पर भी लागू होगी। क्योंकि उन विद्वानों के सामने तो आप भी जुगनू ही
अस्तु प्रथम यह मार्ग प्राप को ही ग्रहण करना चाहिये। यह कह कर वह चला गया।
यह उनकी विद्वत्ता तथा उत्तर देने की शैली का नमूना है।
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