Book Title: Sohanlalji Pradhanacharya
Author(s): Chandrashekhar Shastri
Publisher: Sohanlal Jain Granthmala

View full book text
Previous | Next

Page 445
________________ श्रापके उत्तराधिकारी ४०५ महाराज विहार करते हुए कसूर पहुंचे तो उनको इस समाचार से आश्चर्य हुआ। उन्होंने यत्न कर के उस मुसलमान वने हुए श्रोसवाल युवक को अपने पास बुलवा कर उससे निम्नलिखित वार्तालाप किया युवाचार्य-क्यों भाई ! क्या तुम हृदय की शान्ति प्राप्त करने के लिये जैनी से मुसलमान बने हो ? क्या इस्लाम में जैन धर्म से अधिक शांति है ? युवक-नहीं महाराज ! इस्लाम का हृदय की शान्ति से क्या सम्बन्ध ? युवाचायणे-तब फिर तुम मुसलमान क्यों बन गए ? युवक-महाराज ! मुसलमान मुझे परिस्थिति ने बनाया। मेरे सामने आचरण को निर्बलता की विवशता थी। बिरादरी वालों ने उसमे एक और धक्का लगा दिया, जिससे मुझे इच्छा न होते हुए भी मुसलमान बनना पड़ा। युवाचार्य-तव तो तुमको जैन धर्म मे दुवारा आकर प्रसन्नता ही होगी। युवक-नहीं महाराज ! मुसलमान बनने के बाद अब मैं जैनी वनने को तैयार नहीं हूं। युवाचार्य-यह क्यों ? युवक-बात यह है कि मुसलमान के नाते इस्लाम विरादरी मे मेरे साथ समानता का व्यवहार किया जाता है। फिर मुसलमान लोग नए वने हुए मुसलमान को नौ-मुस्लिम कह कर अपने से भी अधिक सुविधाएं देते है। यदि मैं बड़े से बड़े मुसलमान राज्याधिकारी के पास भी चला जाऊ तो वह मुझे अपने अधिकार से भी बढ़ कर अधिक सुविधाए केवल इसलिये देगा कि मैं इस्लाम धर्म मे स्थिर बना रहूँ। इसके विरुद्ध यदि मै जैनी

Loading...

Page Navigation
1 ... 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473