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प्रधानाचार्य श्री सोहनलाल जी
बना ही रहता है। इसी प्रकार इस जीव के अनेक जन्म होने पर भी जीव का अस्तित्व बराबर बना रहता है।
जीवित्त मनुष्य का मरण निश्चित है। आज हम संसार मे सब किसी को मृत्यु से डरते हुए देखते हैं, किन्तु जब हम मृत्यु के यथार्थ स्वरूप पर विचार करते हैं तो उसमें भय जैसी कोई चीज दिखलाई नहीं देती। तात्विक रूप में विचार किया जावे तो मृत्यु कर्मों के भोग की एक मंजिल है। यदि प्राणी उसको अवश्यंभावी मान कर उसका शान्त मन से स्वागत करे तो मृत्यु सुन्दर दिखलाई देगी। क्यों कि शान्त भाव से मृत्यु का आलिंगन कर हम उनके कर्मों को भोग कर उनकी स्थिति को समाप्त कर देते है। फिर यदि संथारा अथवा समाधि मरण के रूप में मृत्यु का खयाल किया जावेगा तो हमारे अनेक कर्मों की ऐसी निर्जरा हो जावेगी, जिस से हम को अनेक जन्मों मे लाभ
होगा।
__पूज्य सोहन लाल जी महाराज का शरीर असमर्थ तो हो ही चुका था। अव उनके शरीर मे निर्बलता भी पर्याप्त श्रा गई थी। ___ अजमेर सम्मेलन से निवृत हो कर युवाचार्य श्री काशीराम जी महाराज ने अपना १६६० का चातुर्मास अजमेर ही मे किया। गणी उदयचन्द जी महाराज ने पुष्कर मे तथा उपाध्याय
आत्माराम जी महाराज ने अपना १६६० का चातुर्मास जोधपुर मे किया । शतावधानी मुनि रत्नचन्द्र जी महाराज अजमेर सम्मेलन मे युवाचार्य श्री काशीराम जी महाराज से बहुत प्रभावित हुए थे। किन्तु यत्न करने पर भी वह अपना १६६० का चातुर्मास उनके साथ न कर पाए । युवाचार्य जी का सम्वत् १६६१ का चातुर्मास आगरे तथा उपाध्याय आत्माराम जी