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प्रधानाचार्य श्री सोहनलाल जी प्रशिष्यों में विभक्त कर देना चाहते थे। इस प्रकार के विचार कई वर्ष तक उनके हृदय में उथल पुथल मचाते रहे। अन्त में उन्होंने यह निश्चय कर लिया कि संघ के विशिष्ट कार्यकर्ता मुनियों को कुछ निश्चित उत्तरदायित्व देकर उसके अनुसार कुछ पदवियां दे दी जाये।
अस्तु आपकी प्रेरणा से विक्रम संवत् १६६६ के फाल्गुण मास मे अमृतसर में पंजाब प्रान्त के जैन मुनिराजों का एक विराट सम्मेलन किया गया । यह सम्मेलन न केवल अमृतसर के लिए, वरन् समस्त जैन समाज के लिये अत्यधिक महत्वपूर्ण था । इसमे भाग लेने के लिये पंजाब भर के मुनियों तथा आयिकाओं के अतिरिक्त श्रावक श्राविकाए भी बड़ी भारी संख्या मे
आए थे । इस समय जनता के हृदय में उत्साह का समुद्र हिलोरे ले रहा था। श्रद्धय तथा पूज्य श्री सोहनलालजी महाराज के चरणों मे एक महान् विचार कार्य रूप में परिणत हा रहा था।
उत्सव के समय पूज्य श्री ने मुनि श्री उदयचन्द जी महाराज को अपने समीप बुलाकर उनसे एकान्त में कहा ।
"उदयचन्द ! अब मैं वृद्ध हो गया हूं। जीवन का क्या पता कि क्या कव हो जावे। मेरी इच्छा अव अपने पद के उत्तरदायित्व के भार को हलका करने की है। अतएव मैं चाहता हूँ कि इस सम्मेलन मे अपने किसी योग्य उत्तराधिकारी को नियुक्त कर दू । मेरी इच्छा है कि तुम मुझ को इस विषय मे सम्मति दो।" ___ अपने वाबा गुरु के इस प्रकार प्रेम तथा वात्सल्य भरे शब्दों को सुनकर मुनि श्री उदयचन्द जी ने उनके चरणों की वन्दना करते हुए उत्तर दिया