________________
२६८
प्रधानाचार्य श्री सोहनलाल जी __ मुनि श्री उदयचंद जी की प्रशांत भावना, गंभीरता और विद्वतापूर्ण तर्कशैली का ऐसा चमत्कारपूर्ण प्रभाव पड़ा कि विरोधी पक्ष के लोगों ने भी उनकी मुक्त करठ से प्रशंसा की। नाभा नरेश हीरासिह जी तो महाराज श्री के उत्कृष्ट वैराग्य, त्याग वृत्ति एवं पांडित्य पर इतने अधिक मुग्ध हुए कि वह जब देखो तब उनका गुणानुवाद करते रहते थे। मुखवस्त्रिका के सम्बन्ध मे वल्लभ विजय जी ने पूछा।
वल्लभ-मुखवस्त्रिका वांधनी कहां लिखी है ? उदय-पहिले आप मुखवस्त्रिका का अर्थ कीजिये। वल्लभ-मुखस्थ वस्त्रिका इति मुखवस्त्रिका ।
उदय-हस्तस्त्रिका तो नहीं ? जब सूत्रकार ही 'मुख वस्त्रिका' इस निश्चित शब्द का प्रयोग कर गए हैं, तो फिर उसको हाथ मे क्यों कर रखा जा सकता है ? यदि यह हाथ मे रखने के लिये होती तो सूत्रकार उसके लिये 'हस्त वस्त्रिका' शब्द का प्रयोग करते। क्या आप शास्त्रों के शब्दों को निरर्थक मानते है, जो मुखवस्त्रिका शब्द का अर्थ हाथ में रखना कहते हैं ? खुले मुख बोलना तो भगवान की आज्ञा के विरुद्ध है और दशों उंगलियों को मिलाकर और उनको मस्तक से लगाकर नमस्कार करने के लिये आजा है। यदि मुखवस्त्रिका हाथ मे होगी तो दशों नाखूनों को मिलाकर मस्तक पर कैसे लगाया जा सकता है ?
किन्तु वल्लभ विजय जी ने इस युक्ति का कोई उत्तर न देकर इधर उधर की कहना आरम्भ किया। इस पर भाई कहानसिंहजी ने कहा