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प्रधानाचार्य श्री सोहनलाल जी पंडित शिवजीराम पत्र पाते ही कांधला आए। लोगों ने शिवजीराम को बहुत सममाया, किन्तु वह अनुमति देने को तैयार न हुए। अन्त में कांधले के जैनियों ने एक युक्ति से काम लिया। उन्होंने नौबतराय के पिता से कहा
__"आप ब्राह्मण हैं और किसी भी अव्राह्मण के हाथ का खाना नहीं खाते। छुआछूत का विचार आपमें अत्यन्त उग्र है। किन्तु आपका पुत्र न जाने कहां कहां घूमा है ? किस किस के हाथ का उसने खाया है ? क्या आप ऐसे पुत्र के साथ अपना भोजन पान का सम्बन्ध रक्खेगे ? यदि आप उसके साथ भोजन पान'का सम्बन्ध रक्खेगे तो आपकी ब्राह्मण जाति में उसकी क्या प्रतिक्रिया होगी? आप जरा विचार से काम लें।"
इस बात को सुन कर पंडित शिवजीराम विचार में पड़ गए। उन दिनों छुआछूत का भूत आज कल की अपेक्षा अधिक भयंकर रूप में उच्च जाति कहलाने वालो को दवाए हुए था। अन्त में उन्होंने नौबतराय को दीक्षा लेने की अनुमति देकर उन्हें अग्नि परीक्षा में सफल होने, का आशीर्वाद दिया।
अव क्या था । कांधला से जैन संघ में हर्ष की लहर दौड़ गई। उन्होंने अत्यन्त धूम धाम से दीक्षा महोत्सव करने की योजना बनाई। यद्यपि नौवतराय तथा पूज्य श्री दोनों ही इस धूम धाम के विरुद्ध थे, किन्तु श्रावकों ने नहीं माना। और नौवतराय जी को भादों सुदी एकादशी संवत् १६४१ को श्रद्धय मुनि गैडेराय जी के द्वारा दीक्षा दिलाई गई। अब नौवतराय जी का नाम मुनि उदयचन्द रखा गया।