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प्रधानाचार्य श्री सोहनलाल जी
लुधियाने जा कर पूज्य श्री मोतीराम जी महाराज के दर्शन किये। रावलपिण्डी का श्री संघ आपसे चातुर्मास करने का आग्रह बहुत समय से कर रहा था। अतएव आप लुधियाने से विहार करके गुजरवाल, जगरांचा, वरनाला, भटिंडा, फरीदकोट, फिरोजपुर, कसूर, लाहौर, गुजरांवाला, वजीराबाद, कुजां (जिला गुजरात), लालामूसा, जेहलम, रौतासपुर, कल्लर इत्यादि क्षेत्रों मे धर्म प्रचार करते हुए रावलपिण्डी की ओर चले।
रावलपिएडी का मार्ग लम्बा था, मार्ग की कठिनाइयां भी कुछ कम नहीं थीं। किन्तु धर्म प्रचार का अदम्य उत्साह मन में लिये मुनि मण्डल अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता ही गया। कितने ही स्थानों पर श्राहार पानी का प्रभाव रहा। ठहरने का स्थान भी ठीक ठीक नहीं मिला और मार्ग मे पर्याप्त संकट का सामना करना पड़ा। किन्तु धर्म प्रचार के पथ पर चलने वाले महापुरुषों को इस दु.ख मे भी सुख का ही अनुभव होता था। मुनि श्री उदयचन्द जी भी इस पूरे समय भर अपने गुरु श्री गैंडेराय जी सहित पूज्य श्री की सेवा में रहे और विद्याध्ययन करते रहे।
आप लोग रावलपिण्डी पहुंचे तो जनता में हर्षका वारापार न रहा। मुनिराज उनके लिये साक्षात् भगवान थे। जैन तथा अजैन सभी जनता उनके दर्शनों के लिये उमड़ पड़ी। रावलपिण्डी चातुर्मास के संवत् १६४५ के चार मास बड़े आनन्द पूर्वक धर्म प्रचार में व्यतीत हुए। रावलपिण्डी का धर्मध्यान तथा तपश्चरण उन दिनों ख्याति प्राप्त कर रहा था।
घूज्य श्री सोहनलाल जी महाराज शास्त्रों के अगाध पंडित थे। उन्होंने अपने चिन्तन तथा मनन के द्वारा शास्त्रों का गंभीर