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प्रधानाचार्य श्री सोहनलाल जी इन सब की सेवा करता हुश्रा उच्चकोटि के धर्म का पालन करता है। वास्तव में यही धर्म है।
श्री वाहुबलि जी ने अपने पूर्वभव में उच्च कोटि की सेवा की थी। उसी के फल से उनको सब प्रकार के शुभ संयोग मिले
और अपने बड़े भाई भरत चक्रवर्ती से भी उनको अधिक शक्ति प्राप्त हुई।
मुनि नन्दिपेण भी उच्चकोटि की सेवा करने वाले थे। यहां तक कि आपकी सेवापरायणता की प्रशंसा सौधर्म स्वर्ग के इन्द्र ने अपनी सुधर्मा सभा में की। इस पर देवता उसकी परीक्षा को आए। किन्तु आप देवता के प्रतिज्ञा करने पर भी अपने सेवा कार्य से विरत न हुए। अन्त मे देवता भी अपना असली रूप धारण कर नन्दिपेण मुनि के चरणों मे गिर पड़ा और उसने उनसे क्षमा प्रार्थना की। अंत मे वह देव मुनि नन्दिपेण की अत्यधिक प्रशंसा तथा स्तुति करके अपने स्थान को गया। स्वर्ग पहुँचने पर उसने इस विषय मे इन्द्र से भी क्षमा प्रार्थना की। उसने इन्द्र से कहा ___"मुनि नन्दिपेण की सेवापरायणता के सम्बन्ध मे आपका कथन विल्कुल ठीक था। वह इस वृत्ति में उससे भी बढ़कर हैं। वह निःस्वार्थ भाव से मन में ग्लानि न मानते हुए सभी रोगियों की सेवा किया करते हैं।"
मुनि सोहनलाल जी भी सेवापरायणता के गुण में इसी
प्रकार के थे।
मुनि सोहनलाल जी का प्रारम्भ से ही विद्याव्यासंग था, किन्तु अपरिग्रह महाव्रत के पालन में वह विद्याव्यासंग को भी कुछ नहीं समझते थे। प्रथम तीन वर्ष मे उनको वैयावृत्य से जो थोड़ा बहुत अवकाश मिला था, उसमें उन्होंने आगमग्रन्थों का