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प्रधानाचार्य श्री मोहनलाल जी इस जन्म के भोगों के प्रति निदान करके मरी थी। अस्तु उसको इस प्रकार के भोग द्रोपदी जन्म में मिलना अनिवार्य था। फिर ज्ञातृधर्म कथांग के वर्णन से यह भी पता चलता है कि द्रोपदी का पिता राजा द्रपद जैनी नहीं था. क्योंकि उसके यहां होने वाली दावत मे छ प्रकार के निम्नलिखित श्राहार बन थे
असनं, पानं, ग्वाइयं, मायणं. मह, मांसं।
यह संभव नहीं कि जैनी के यहां मद्य मांस का भोजन खाया जावे अथवा सार्वजनिक रूप से परोसा जाये।
इसके विपरीत पाण्डव लोग जैनी थे, क्यों कि उनके यहां मद्य तथा मांस को छोड़कर शेष चार प्रकार का भोजन ही अतिथियों को परोसा गया था।
फिर द्रोपदी ने जिस जिन प्रतिमा का पूजन किया था, उसके सम्बन्ध में यह कैसे माना जावे कि वह जिन प्रतिमा जैन तीर्थंकर की ही थी, क्यों कि जिन शब्द के अर्थ निम्न. लिखित हैं
भूत, देवता, कामदेव, अवधिज्ञानी, भगवान् , गौतम बुद्ध, वासव, इन्द्र और अर्जुन।। जैसा कि मेदिनी कोप मे लिखा है
'जिनोऽहंति न बुद्धे च पुसि स्याज्जित्वरे त्रिपु।' जित्वर शब्द के विषय में भी मेदिनी कोप मे कहा गया
जेता, जिष्णुश्च जिस्वरः
जिस्णुर्ना वासवेऽजुने । सो यह किस प्रकार माना जावे कि उसने जिन प्रतिमा का पूजन करते समय जैनमृति का ही पूजन किया ? महाभारत
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