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प्रधानाचार्य श्री सोहनलाल जी इस प्रकार उनका यह कहना कि हम मूर्ति को आधार बना कर भगवान् का ध्यान करते हैं ठीक नहीं है।
कुछ अन्य मूर्तिपूजक कहा करते हैं कि जिस प्रकार एक कमरे में वेश्याओं के चित्रों को देख कर उनके अन्दर राग भाव उत्पन्न होता है उसी प्रकार वीतराग मूर्तियों को देख कर मन मे वीतराग भाव का उदय होता है। उनकी यह युक्ति भी युक्ति न होकर युक्तगभास है। कारण कि उनके मन मे सुन्दरता के प्रति आकर्षण अथवा राग भाव का उदय चारित्र मोहनीय कर्म की रति प्रकृति के उदय के कारण होता है, किन्तु वीतराग रूप धार्मिक भाव का उदय उन कमों के क्षयोपशम से होता है। सूर्ति से जिस प्रकार चारित्र मोहनीय कर्म के उदय में सहायता मिलती है। उस प्रकार उसके क्षयोपशम में सहायता नहीं मिल सकती।
वास्तव में ज्ञान उपयोग से होता है। जब किसी बात में उपयोग होता है तो उसका नान जल्दी हो जाता है। किन्तु उपयोग न होने से उस बात का पता बिलकुल भी नहीं चलता। यह प्रायः देखने में आता है कि हम किसी व्यक्ति से कोई सुन्दर कहानी सुन रहे हैं। प्रायः कहानी सुनते सुनते हमारा ध्यान कहीं और चला जाता है और हम कहानी के सिलसिले को अपने मन में छोड़ कर उसको सुन नहीं पाते। कई बार तोपों की गर्जना होने पर हमारे कान के पर्दे तक फट जाते हैं, किन्तु जब हमारा ध्यान कहीं और होता है तो वह तोपों की भीषण गर्जना भी हमको बिलकुल सुनाई नहीं देती। इस प्रकार यह सिद्ध है मन एक समय एक बात को ही सोचता है। दो बातों का ध्यान एक साथ नहीं कर सकता। इससे न्याय शास्त्र के इस सिद्धान्त की पुष्टि होती है कि