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गणि उदयचन्द जी का सम्पर्क
अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहोण य सुहाण प्रय । अप्पा मित्त मामित्तं य, दुप्पट्ठिय सुपटिश्रो॥
उत्तराध्ययन सूत्र, अ० २०, गाथा ३६, ३७ प्रारमा ही अपने दुःखों और सुखों का कर्ता तथा भोक्ता है। अच्छे मार्ग पर चलने वाला प्रारमा मित्र है, और बुरे मार्ग पर चलने वाला प्रात्मा शत्रु है।
पूज्य मुनि श्री सोहनलाल जी जब आत्माराम जी के पीछे जयपुर से आगे बढ़े तो जयपुर के श्रावकों को आपकी विहत्ता, तप तथा त्याग की शक्ति देख कर बड़ी भारी श्रद्धा हुई। अतएव जब तक आप व्यावर पधारे तब तक जययुर वालों ने आपके पास जयपुर में चातुर्मास करने की विनती कई बार की, अस्तु, आपने उनकी प्रार्थना को स्वीकार कर संवत् १९४० का चातुर्मास जयपुर में करना स्वीकार किया।
जयपुर चातुर्मास में आपके साथ जो साधु थे, उनमें एक मुनि हरिचन्द जी महाराज भी थे। वह श्री मुनि नारायणदास जी महाराज के शिष्य थे। किन्तु उनको अकाल में शास्त्रों का स्वाध्याय करने में आनन्द आता था। श्री सोहनलाल जी