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प्रधानाचार्य श्री सोहनलाल जी में ग्रहण करते थे। आपका वारी खाता भी एक ही था। आप अत्तार तथा पसारी की दूकान से दवा भी नहीं लेते थे। मुनि गैंडेराय जी महाराज ने भी जीवन भर एक ही चोरपटा, एक ही मुखवस्त्रिका तथा एक ही गाती रखी। आप वृद्धावस्था में आकर एक लोई का टुकड़ा अर्थात् अकरा रखने लगे थे। इस प्रकार मुनि गैडेराय जी में अनेक गुण थे। मुनि सोहनलाल जी ने ऐसे शिष्य को साथ लेकर विहार करते हुए न केवल समाज का कल्याण किया वरन् अपने आत्मा का विकास भी किया।
१६३६ का चातुर्मास ___ मुनि सोहनलाल जी महाराज फिरोजपुर का चातुर्मास समाप्त करक वहां से विहार कर गए। अव आपने फरीदकोट, भटिंडा, हांसी, हिसार तथा दिल्ली में धर्म प्रचार करते हुए पानीपत, सोनीपत, कर्नाल, शाहाबाद आदि क्षेत्रों में धर्म प्रचार किया। इस बीच में आपको अम्बाले से अनेक विनतियां मिल चुकी थी। अतएव आपने अम्बाला की विनती को स्वीकार कर अम्बाला नगर मे पदार्पण किया। वहां के श्रावक समाज के अाग्रह से आपने अपना संवत् १९३६ का चातुर्मास अम्बाला नगर मे किया।
संवत् १९३६ मे आत्माराम जी संवेगी का चातुर्माम भी अम्बाला मे ही था। इस कारण से भी वहां के श्रावक वर्ग ने मुनि सोहनलाल जी का चातुर्मास वहीं कराया।
इस समय मुनि श्री सोहनलाल जी ने ठाणे पांच से अम्बाला मे चातुर्मास किया। आपके साथ मुनि श्री गणपत राय जी, मुनि श्री गैडेराय जी, मुनि मेलाराम जी तथा तपस्वी मुनि रामचन्द जी भी थे।