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तप तथा अध्ययन
पंचहिं ठाणेहिं सत्तं वाएज्जा तंज्जहा संग्गहठयाए उवग्गहठयाए णिज्जरठियाए सत्तेवाये पज्जवयाते भविस्संति सत्तस्सवा अवोछिन्न थयठयाते ।
ठाणांग, ठाण ५, उहेशक ३ गुरु को पांच कारणों से शिष्य को पढ़ाना चाहिये । प्रथम यह भान कर कि मैंने इसका हाथ पकड कर इने अपनी शरण में लिया है, द्वितीय यह संयम में स्थिर हो जावेगा तो गच्छ में अाधारभूत हो जावेगा, तीसरे निर्जरा के लिये, चौथे स्वयं मेरा श्रत भी अत्यन्त निर्मल हो जावेगा तथा पांचवें धन की शैली पिना व्यवछेद के बगबर बनी रहेगी।
अपने दीक्षा गुरु मुनि धर्मचन्द जी के स्वर्गवास के बाद मुनि सोहनलाल जी ने पूज्य श्री अमरसिंह जी महाराज की सेवा में रहना प्रारम्भ किया। अब उन्होंने कठिन तप करते हुए नियमित रूप से आगम ग्रन्थों का अध्ययन करना प्रारम्भ किया । इन दिनों आपने आचारांग आदि शास्त्रों को भी अपने हाथ से लिखा। मुनि सोहनलाल जी के हाथ के अक्षर बड़े सुन्दर हुआ करते थे। आपके हाथ के लिखे हुए शास्त्र आज तक विद्यमान हैं।