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प्रतिवादीभयंकर मुनि सोहनलाल जी
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संवत् १६१० में मालेरकोटला नगर के एक दित्तामल नामक बालक को दीक्षा दी, जिसके सम्बन्ध में वहां के जैनियों का कहना था कि उस बालक की जाति शुद्ध नहीं थी। दीक्षा से पूर्व उसने एक बार रात्रि मे मेंहदी की भ्रांति में भस्म लगा लिया, जिससे उसके हाथ काले तथा चिकने हो गए। उस बालक का दीक्षा के समय जैनियों ने जीवनराम जी महाराज से कहा कि
"महाराज! इस बालक को दीक्षा न दें। यह धर्म का विरोधी होगा।"
इस पर श्री जीवनराम जी महाराज ने उनको उत्तर दिया
"हे श्रावकों ! इस बालक के भाग्य में जो होगा वही होनहार है।".
यह कह कर उन्होंने उस बालक को दीक्षा दे दी और उसका नाम आत्मागम रख दिया।
जब पूज्य श्री अमरसिंह जी महाराज ने संवत् १९१२ मे मालेर कोटला में चातुर्मास किया, तो वहां के श्रावकों ने उनको जीवनराम जी महाराज के सम्बन्ध मे उपालम्भ दिया कि उन्हों ने उनके मना करने पर भी दित्तामल नामक बालक को दीक्षा दे दी। इस पर पूज्य महाराज ने उनको उत्तर दिया
"इन कारणों से तो यह कार्य अनुचित हुअा। इस हुँटाबसर्पिणी काल से तो इस प्रकार के अनेक विध्न धर्म पथ मे आवेंगे ही। जमाली का उदाहरण भी इसी की पुष्टि करता है।"
इसके पश्चात् श्रआत्माराम जी ने मुनि रामवृक्ष जी से सूत्रों का अध्ययन किया। किन्तु संवत् १९१८ से लेकर संवत् १६०० के बीच में पूर्व कर्मों के उदय से आत्माराम जी को सर्वनकथित सिद्धान्तों में अश्रद्धा होने लगी। उनको सुनि के पालने योग्य