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दीनों की सहायता दीन सबन को लखत हैं, दीनहिं लखै न कोय । जो 'रहीम' दीनहिं लखै, दोनबन्धु सम होय ॥
दीन सब को देखते हैं, किन्तु दीनो की अोर कोई नहीं देखता । रहीम कवि का कहना है कि जो व्यक्ति दीनों की ओर देखते हैं वह दीनबन्धु के समान हो जाते है।
संसार में सेवक अनेक हैं, किन्तु उन मे से प्रायः दिखावटी हैं । सच्चे सेवक तो बहुत ही कम हैं। जिन के पास वैभव, यश तथा सामर्थ्य है उनकी सेवा करने को सभी तय्यार रहते हैं, क्यों कि उनसे उनके स्वार्थ की पूर्ति होने की संभावना रहती है। किन्तु निर्धनों की निःस्वार्थ सेवा करने का अवसर आने पर बड़े बड़े सेवा करने वालों का प्रासन चलायमान हो जाता है। ऐसे व्यक्ति सच्चे सेवक न होकर दिखावटी होते हैं। सच्चे सेवकों की गति निराली होती है। उनको दिखावे अथवा नाम की चिंता नहीं होती और उनको पीड़ितों की सेवा करने का अवसर प्राप्त होने पर असीम आनन्द मिलता है। अंधे आदमी को नेत्र मिलने से, बहिरे को श्रवण शक्ति प्राप्त होने से तथा निर्धन अकिञ्चन को लक्ष्मी का अपार भंडार मिलने से इतना