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दीक्षा का निश्चय
१८१ था कि आज दो विप्र केवल उनकी रूपमाधुरी का पान करने के लिये ही आवेंगे। यथासमय दोनों ब्राह्मणों ने उनकी राजसमा में प्रवेश किया। किन्तु वह चक्रवर्ती के रूप को देख कर प्रसन्न होना तो दूर, उलटे अपना माथा धुनने लगे। चक्रवर्ती के. इसका कारण पूछने पर उन्होंने कहा
"इस समय आपका वह रूप रंग नहीं है।" इस पर चक्रवर्ती ने उनसे प्रश्न किया
"जिस समय मेरा शरीर शृङ्गार तथा वैभव से रहित था तब तो तुम उसको देख कर बहुत प्रसन्न हुए थे, किन्तु उसको शृङ्गार तथा वैभव सहित देख कर तुमको खेद हुआ। इसका कारण आप स्पष्ट बतलाइये।"
चक्रवर्ती सनत्कुमार के यह वचन सुन कर विप्रों ने उत्तर
दिया
"देव ! आपके उस समय के तथा इस समयाके रूप में भूमि तथा आकाश जैसा अन्तर है। उस समय आपका शरीर अमृततुल्य था। अतएव हमको उसे देख कर प्रसन्नता हुई थी, किन्तु इस समय आपका शरीर विषतुल्य है। अतएव हमको इस समय खेद हुआ.।"
इस पर चक्रवर्ती ने प्रश्न किया कि, "वह कैसे ?" । तब ब्राह्मणों ने उत्तर दिया .
"राजन् ! उस समय आपका शरीर रोगरहित था; किन्तु इस समय आपका शरीर सोलह महारोगों द्वारा ग्रसित है। यदि
आप हमारी बात की परीक्षा करनी चाहें तो पीकदान मंगवा कर उसमें थूक कर देखें। उसमें कृमि मिलेंगे. और मक्खियां उस पर बैठते ही मर जावेंगी."