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प्रधानाचार्य श्री सोहनलाल जो ऐसा कह कर दोनों ब्राह्मणवेपी देवता अपने २ स्थान को चले गए।
उनके जाने के बाद चक्रवर्ती ने पीकदान मंगवा कर उसमें थूक कर देखा तो उसमें कृमि दिखलाई दिये तथा उस पर बैठने वाली मक्खियां तत्क्षण मर गई। चक्रवर्ती ने दर्पण में अपने मुख को देखा तो उसको भी श्रीहीन पाया। विनाशीक तथा अशुचिमय शरीर का ऐसा प्रपंच देखकर चक्रवर्ती के हृदय में तत्क्षण वैराग्य उत्पन्न हो गया। वह अपने मन में सोचने लगे ____ "ओह ! यह शरीर ऐसा क्षणभंगुर है तब तो मृत्यु किसी भी क्षण आ सकती है और ऐसी अवस्था आने पर तो परलोक साधन का कुछ भी कार्य न किया जा सकेगा। यह सारा संसार ही पानी के बुलबुले के समान विनाशीक है। विषय शहद लपेटी हुई तलवार की धार के समान है। उनको भोगने में दुःख के अतिरिक्त सुख नहीं मिल सकता। अतएव अविनाशी सुख की प्राप्ति के लिये इस नश्वर संसार को त्याग कर जिनेश्वरी दीक्षा लेने से ही आत्मकल्याण हो सकता है।"
इस प्रकार मन में विचार करके सनत्कुमार चक्रवर्ती ने अपना सम्पूर्ण वैभव त्याग कर जैनेश्वरी दीक्षा धारण की। उनकी रानियां, संत्रीगण तथा अन्य राज्याधिकारी उनको संसार में पुनः लाने की अभिलाषा से छै मास तक उनके पीछे २ फिरते रहे । किन्तु सनत्कुमार मुनि ने उनकी ओर देखा तक नहीं। अंत में यह सब के सब निराश होकर वापिस अपनी राजधानी में आए।
इसके पश्चात् सनत्कुमार मुनि अपने शरीर के रोगों की वेदना को शान्त भाव से सहन करते हुए तपस्या करने लगे।