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दीक्षा का निश्चय रोगों की विद्यमानता में ही उन्होंने अनेक वर्षों तक घोर तप किया । जिसके प्रभाव से उनको आमपौषधि, विप्रौषधि, खेलौषधि तथा जल्लोषधि आदि ऋद्धियों की प्राप्ति हो गई। किन्तु उन्होंने इन ऋद्धियों के प्रभाव से भी अपने रोग का शमन नहीं किया ।
तप करने में उनके इस असीम धैर्य तथा सहनशीलता की प्रशंसा एक अन्य अवसर पर स्वर्ग में इन्द्र ने फिर की। तब पहिले वाले दोनों देव इन्द्र की सहमति से सनत्कुमार मुनि की परीक्षा लेने उनके पास आए। इस बार उन्होंने वैद्यों का रूप धारण किया। सनत्कुमार मुनि के पास जाकर उन्होंने उनसे अत्यन्त भक्तिपूर्वक अनुनय की कि वह उनसे अपने रोगों की चिकित्सा करा लें । तब मुनि ने उनसे प्रश्न किया __मुनि-"वैद्यराज ! आप लोग किस दुःख की औषधि करते हैं ? शारीरिक दु.ख की या आत्मिक दुःख की ?"
वैद्य-हम तो महाराज केवल शारीरिक दुःख को ही चिकित्सा करते हैं।
मुनि-शारीरिक दुःख का उपाय तो सरल है। यह तो लव से भी मिट सकते हैं।
ऐसा कह कर उन्होंने अपना लव अपने शरीर को लगाया । उसके लगाते ही उनका शरीर पूर्व के समान सुन्दर कान्तियुक्त हो गया। इसके पश्चात् उन्होंने वैद्यों से कहा
मुनि-यदि आपके पास अष्टकर्मनाशक औषधि हो तो हम ले सकते हैं।
वैद्य-वह औषधि तो महाराज आपश्री के पास ही है। हम पामरो के पास वह औषधि किस प्रकार हो सकती है ?