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सतीत्व रक्षा
१८६ - गई । उसने अपने पास गिरी हुई तलवार को उठा लिया और सोहनलाल जी की सहायता करने के लिये आ गई।
अब तो उन दोनों ने यह विचार किया कि "जब इस अकेले ने ही हमारे दो आदमियों को घायल कर दिया तो अब तो यह युवती भी इसकी सहायता को आ गई। यह तो जान पर भी खेल सकती है। ऐसी दशा में न जाने क्या हो ।”
वह लोग इस प्रकार अपने मन में विचार कर ही रहे थे कि उधर से घोड़ों की टापों का शब्द सुनाई दिया। उस शब्द को सुनते ही वह दोनों वहां से भाग निकले। तब सोहनलाल जी उस युवती को अपने साथ लेकर उन घायलों को वहीं पर छोड़ कर पसरूर की ओर चल दिये। नगर के समीप आने पर उन्होंने युवती से पूछा
सोहनलाल-बहिन ! तुम कौन हो और इनके फंदे मे किस प्रकार पड़ गई थीं?
युवती भय के कारण अब भी थरथर कांप रही थी। उसने अपने को संभाल कर उत्तर दिया
युवती-भाई ! मैं इसी नगर के खत्री की पुत्री हूं। मेरी माता गांव गई हुई है। इन में से एक ने आकर मुझ से कहा कि 'तेरी मां मार्ग मे आते हुए गिर पड़ी है और तुझे शीघ्र बुला रही है। मैं उसकी बात को सत्य मान कर उसके साथ हो ली। जब मैं नगर से कुछ दूर चली आई तो शेष तीन युवक भी निकल आए। फिर वह मुझे पकड़ कर वहां तक ले गए। यदि
आप वहां समय पर पहुँच कर मेरी सहायता न करते तो न जाने मुझ पर क्या बीतती। उस समय घर पर भी मैं अकेली ही थी। अतएव मेरे आने का पता किसी को भी नहीं था ।